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२८२] चक्र और परचक्र भय तत्क्षण दूर हो जाता। अतः सुखी लोग अत्यन्त उत्साह के साथ उनका स्वागत उत्सव करते । (७) मान्त्रिक पुरुष जैसे भूत या राक्षस से रक्षा करते हैं उसी प्रकार संहारकारक घोर दुर्भिक्ष से वे सबकी रक्षा करते । इस उपकार के कारण समस्त जीव उनकी स्तुति करते । (८) भीतर न समा सकने के कारण बाहर आई अनन्त ज्योति हो ऐसी और सूर्य मण्डल को परास्त करने वाली प्रभा वे धारण करते थे । (९) अग्रगामी चक्र से जैसे चक्रवर्ती शोभित होता है वैसे ही आकाश में अग्रगामी धर्मचक्र से वे शोभित होते । (१०) समस्त कर्मों को जय करने के कारण उच्च जय स्तम्भ की तरह छोटी-छोटी ध्वजारों से युक्त एक धर्म-ध्वजा उनके आगेआगे चलती। (११) मानो उनके प्रयाण के लिए उचित कल्याण मङ्गल कर रहे हों ऐसी महान् शब्दकारी दुन्दुभि उनके आगे बजती। (१२) वे जैसे स्वयं के यश हों इस प्रकार प्राकाश स्थित पादपीठ सहित रत्न सिंहासन से शोभते थे। । १३) देवताओं द्वारा रखे स्वर्ण-कमलों पर अपने सुन्दर चरण रख वे चलते । (१४) उनके भय से मानो रसातल में प्रवेश करना चाहते हों इस प्रकार निम्नमुखी तीक्ष्ण कंटकों द्वारा उनका साधु-साध्वी समूह पाश्लिष्ट नहीं होता । (१५) छह ऋतुएँ एक साथ उनकी उपासना करतीं मानो कामदेव की सहायता कर उन्होंने जो पाप किया था उसका प्रायश्चित कर रही हों । (१६) पथ के चारों ओर के वृक्ष, यद्यपि वे ज्ञान रहित हैं लगता उन्हें झुक कर प्रणाम कर रहे हैं । (१७) पंखे की हवा की तरह मृदु शोतल और अनुकूल पवन निरन्तर उनकी सेवा करता । (१९) स्वामी के प्रतिकलगामियों का कल्याण नहीं होता ऐसा सोचकर पक्षी नीचे उतर उनकी प्रदक्षिणा देते हुए दाहिनी ओर चले जाते । (१९) चपल तरंगों से जैसे समुद्र शोभा पाता है उसी प्रकार पावागमनकारी कम से कम एक कोटि सुरासुरों से वे शोभा पाते । (२०) भक्तिवश चन्द्र दिन के समय ही चन्द्रप्रभा सहित आकाश में स्थित हो गया है ऐसे छत्र से वे शोभित होते । (२१) मानो चन्द्र से पृथक कर दिए गए हों ऐसे किरण पुञ्ज हों और गङ्गा-तरङ्ग को तरह श्वेत चमर उन्हें वींजते । (२२) तपस्या से प्रदीप्त और सौम्य लक्ष-लक्ष साधुनों से प्रभु इस प्रकार शोभित होते जैसे तारों के मध्य चन्द्रमा शोभा पाता है। जिस प्रकार सूर्य समस्त सागर और सरोवर के कमल को प्रफल्लित करता है उसी प्रकार वे