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उसने मरीचि से धर्म मार्ग पूछा । मरीचि ने उत्तर दिया- 'मेरे पास कोई धर्म नहीं है । यदि धर्म चाहते हो तो मरीचि की बात सुनकर कपिल पुनः प्रभु के भाँति धर्मोपदेश सुनने लगा ।
प्रभु का आश्रय लो ।' पास गया और पूर्व की ( श्लोक ३९-४६ ) किया - स्वकर्म क्योंकि दरिद्र ( श्लोक ४७ )
उसके जाने के पश्चात् मरीचि ने विचार दूषित इस व्यक्ति को प्रभु का धर्म अच्छा नहीं लगा चातक को पूर्ण सरोवर से क्या लाभ ?
अल्पक्षण के पश्चात् कपिल पुनः मरीचि के पास आया और बोला- 'आपके पास क्या जैसा तैसा धर्म भी नहीं है ? यदि धर्म नहीं है तो व्रत कैसे सम्भव है ?' मरीचि ने सोचा-दैवयोग से यह मेरे जैसा ही लगता है । बहुत दिनों पश्चात् समान विचारधर्मी प्राप्त हुआ है | अतः मुझ असहाय का यही सहायक बने । ऐसा सोच कर उन्होंने प्रत्युत्तर दिया- 'वहाँ भी धर्म है और यहाँ भी धर्म है ।' अपने इस उत्सूत्र कथन से मरीचि ने कोट्यानुकोटि सागरोपम का उत्कट संसार भ्रमरण बढ़ा लिया । मरीचि ने तब कपिल को दीक्षा देकर अपना सहायक बना लिया । इन्हीं से आरम्भ हुआ ।
परिव्राजक धर्म का
( श्लोक ४८-५२ )
विश्वोपकारी भगवान् ऋषभदेव ग्राम, आकर, पुर, द्रोणमुख, खर्वट, पत्तन, मण्डप, आश्रम, खेट आदि पूर्ण पृथ्वी पर प्रव्रजन करने लगे ।
प्रव्रजन के समय (१) अपने चारों ओर एक सौ पच्चीस योजन पर्यन्त मनुष्यों की व्याधि दूर कर वर्षा ऋतु के मेघ की तरह जगत् के प्राणियों को शान्ति देते । (२) राजा जिस प्रकार अनीति दूर कर प्रजा को सुख पहुंचाता है उसी प्रकार टिड्डीदल, चूहे, पक्षी आदि उपद्रवकारी प्राणियों की प्रवृत्ति को संयमित कर सबकी रक्षा करते थे । (३) सूर्य जैसे अन्धकार को दूर कर प्राणियों को सुख देता है उसी भाँति किसी कारणवश उत्पन्न अथवा शाश्वत वैर को दूर कर प्राणियों को प्रसन्न करते थे । (४) पहले जिस प्रकार सुख प्रदानकारी व्यवहार प्रवृत्ति से सबको आनन्दित करते थे उसी प्रकार अब विहार प्रवृत्ति से सबको आनन्दित करते । (५) औषध से जैसे अजीर्ण एवं प्रति क्षुधा दूर होती है उसी प्रकार वे अतिवृष्टि और अनावृष्टि दूर करते । ( ६ ) अन्तःशल्य की तरह उनके आने से स्व