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चारित्र रूपी इस भार को तो मैं क्षण मात्र के लिए भी वहन करने में असमर्थ हूं। मेरे लिए यह व्रत पालन कठिन हो गया है। किन्तु इसका परित्याग कर देने से कुल कलंकित होगा। अतः एक ओर सिंह दूसरी ओर नदी इस भाँति मैं मध्य में फंस गया हूँ; किन्तु मैं जान गया हूँ कि पर्वत पर चढ़ने के लिए जैसे पगडण्डो होती है उसी प्रकार इस कठिन मार्ग का भी सुगम मार्ग है।
(श्लोक ८-१४) ये सब साधु मनोदण्ड, कायदण्ड को जीतने वाले हैं; किन्तु मैं तो इनसे पराजित हो गया हूँ इसलिए मैं त्रिदण्डी बनूगा । ये श्रमण इन्द्रिय जय करते हैं और केश उत्पाटित कर मुण्डित हो जाते हैं; किन्तु मैं माथा मुण्डित न कर शिखा रखूगा। ये स्थूल और सूक्ष्म उभय प्रकार के प्राणी वध से विरक्त हो गए हैं और मैं केवल स्थल प्राणी वध से विरत रहूंगा। ये अकिंचन रहते हैं और मैं स्वर्ण मुद्रादि रखूगा। उन्होंने जूतों का परित्याग किया है; किन्तु मैं जूते पहनूंगा । ये अठारह हजार शील धारण कर अत्यन्त सुवासित हो गए हैं मैं उनसे रहित होकर दुर्गन्धयुक्त हो गया हूँ इसीलिए चन्दन ग्रहण करूंगा। ये श्रमण मोहरहित हैं मैं मोह द्वारा माविष्ट इसके चिह्न रूप सिर पर छत्र धारण करूंगा। ये कषायरहित होने के कारण श्वेत वस्त्र धारण करते हैं मैं कषाय द्वारा कलुषित हूं इसलिए कषाय (गैरिक) वस्त्र धारण करूंगा। ये मुनि पाप के भय से अनेक जीव युक्त सचित्त जल का त्याग करते हैं मैं परिमित जल में स्नान करूंगा, पान करूंगा।
(श्लोक १५-२२) इस प्रकार स्वबुद्धि से निज वेष की कल्पना कर मरीचि ऋषभदेव के साथ प्रव्रजन करने लगे । खच्चर जिस प्रकार गधा या घोड़ा नहीं होता उभय अंशों से उत्पन्न होता है उसी प्रकार मरीचि भी न मुनि थे न गहस्थ । वे उभय अंशों को लेकर नवीन वेषधारी साधु बन गए थे। हंसों के मध्य काक की तरह साधुनों के मध्य इस विकृत साधु को देखकर बहुत से लोग 'धर्म क्या है ?'-उनसे पूछते। उसके उत्तर में वे मूल और उत्तर गुणयुक्त साधु धर्म का उपदेश देते । यदि कोई उनसे पूछता कि तब आप उस प्रकार क्यों नहीं चलते तो वे कहते, मैं असमर्थ हूं। ऐसे उपदेश से यदि कोई भव्य जीव दीक्षा ग्रहण करने की इच्छा करता तो वे प्रभु के पास भेज देते । अतः मरीचि से प्रतिबोध प्राप्त भव्य जीव को निष्कारण