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[२४९ प्रहर की रात सौ प्रहर वाली हो ऐसी लगने लगी । किसी प्रकार उन्होंने वह रात्रि व्यतीत की । (श्लोक ३१८-३२६) सुबह होते ही सूर्य ने इस प्रकार उदयाचल के शिखर पर आरोहण किया मानो वह ऋषभ पुत्रों की ररण-क्रीड़ा का कौतुक देखना चाहता हो । अतः उभयपक्षों के सैन्य दल ने प्रभात समझकर जोर-जोर से रणवाद्य बजाना प्रारम्भ कर दिया । वह शब्द मन्दराचल से आहत समुद्र-सा अर्थात् समुद्रगर्जन - सा या प्रलयकालीन पुष्करावर्त मेघगर्जन-सा अथवा वज्राघात के कारण पर्वत से निकलने वाले शब्द-सा था । ररणवाद्य के उस शब्द से दिक्समूह के हस्ती व्याकुल हो उठे एवं उनके कान खड़े हो गए । जल-जन्तु भयभीत हो गए, समुद्र क्षुब्ध हो गया, क्रूर प्राणी चारों ओर से दौड़ते हुए आकर गुफात्रों में श्राश्रय लेने लगे । बड़े-बड़े सांप विवर में प्रवेश करने लगे । पर्वत कम्पित हो उठे और उनके शिखर टूट-टूटकर गिरने लगे । पृथ्वी को धारण करने वाले कूर्मराज भय के मारे अपने कण्ठ और पांवों को सिकोड़ने लगे । ऐसा लगा मानो आकाश ध्वस हो रहा है । धरती फटी जा रही है । राजा के द्वारपाल की तरह वाद्य से प्रेरित होकर दोनों पक्षों की सेनाएँ युद्ध के लिए प्रस्तुत होने लगीं । युद्ध के उन्माद से उनके शरीर उत्साह में फूल उठे । फलतः कवच की डोरियां टूटने लगीं । अतः वीर सेनानी उन्हें हटाकर नवीन कवच पहनने लगे । कोई प्रेमवश अपने अश्व को कवच पहनने लगा । कारण, वीर पुरुष स्वयं से अधिक अपने वाहन की रक्षा करते हैं । कोई अपने अश्व की जांच करने के लिए उस पर चढ़कर उसे घुमाने लगा क्योंकि प्रशिक्षित और जड़ घोड़ा आरोही के लिए शत्रु समान होता है । कवच पहनाने के पश्चात् ह्रषारवकारी घोड़ों को कुछ सैनिक देवताओं की तरह पूजने लगे । कहा गया है - युद्ध में ह्रषारव जय को सूचित करता है । जिन्हें कवच रहित घोड़े मिले वे अपने कवच भी उतार उतार कर रखने लगे । कारण, पराक्रमी पुरुषों का वीर-व्रत ऐसा ही होता है । किसी-किसी ने अपने सारथी से कहा - समुद्र में मछली की तरह, रणक्षेत्र में रथ को इस प्रकार चलाना कि वह कहीं रुके नहीं । यात्री जिस प्रकार पूरा पाथेय लेकर चलते हैं उसी प्रकार कितने ही वीर यह सोचकर कि युद्ध बहुत दिन चलेगा अपने रथों को अस्त्र-शस्त्रों से भरने लगे । कोई स्वचिह्नांकित ध्वजा को इस प्रकार स्तम्भ से