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२३४] हस्ती, यहां तक कि समस्त अयोध्या नगरी में किसी का अनिष्ट करने की शक्ति विधाता तक में नहीं है। राजा भरत से अधिक तो क्या उनके समान भी कौन है जो भरत क्षेत्र व छह खण्डों को विजय करने में बाधक बनता ? यद्यपि समस्त राजा उनकी आज्ञा का पालन करते हैं, उनकी सेवा करते हैं, फिर भी महाराज का मन प्रसन्न नहीं है। कारण, दरिद्र होकर भी जो अपने कुटुम्ब द्वारा सेवित होते हैं, वे ईश्वर हैं; किन्तु जिनकी कटुम्ब ही सेवा नहीं करता उसे ऐश्वर्य का सुख किस प्रकार होगा ? साठ हजार वर्ष के पश्चात् प्रत्यावृत्त हुए आपके अग्रज अपने अनुजों के आने की प्रतीक्षा कर रहे थे। समस्त सम्बन्धी एवं उनके मित्रों ने पाकर उनका अभिषेक किया। उस समय इन्द्रादि समस्त देवता भी उनके पास पाए; किन्तु ऐसे समय भी अपने भाइयों को न पाकर वे सुखी नहीं हो सके । बारह वर्षों तक राज्याभिषेक चला। फिर भी अपने भाइयों को आते न देखकर उन्होंने उनके पास दूत भेजे । कारण, उत्कण्ठा अत्यन्त बलवान होती है; किन्तु न जाने क्या सोचकर वे राजा भरत के पास न जाकर स्व पिता के पास चले गए और दीक्षा ग्रहण कर ली। अब वे मोह-ममता रहित हो गए हैं। उनके लिए न कोई अपना है न कोई पराया। अतः महाराज भरत का भ्रातृप्रेम उनके द्वारा पूर्ण नहीं हो सकता। यदि आपके हृदय में भ्रातृप्रेम हो तो आप वहां चलकर महाराज के हृदय को प्रसन्न करें। बहुत दिनों के पश्चात् आपके अग्रज प्रत्यावृत्त हुए हैं फिर भी आप बैठे हुए हैं। लगता है आपका हृदय वज्र से भी अधिक कठोर है। आप अग्रज की अवज्ञा कर रहे हैं इससे प्रतीत होता है पाप निर्भीकों में भी निर्भीक हैं। नीतिवाक्य है-शूरवीरों के मन में भी गुरुजनों का भय रहना चाहिए। एक ओर विश्व-विजयी, दूसरी ओर गुरुजनों का विनयकारी। इनमें प्रशंसा योग्य कौन है ? यह विचार करने के लिए परिषद् लाने की आवश्यकता नहीं है क्योंकि गुरुजनों का विनयकारी ही प्रशंसायोग्य है। आप लोगों के इस अविनय को सहनशील महाराज सहन करेंगे; किन्तु निन्दकों को निन्दा करने का अबाध अवसर मिलेगा। आपके अविनय को प्रकट करने वाले निन्दकों के वारणी रूपी तक के छींटे धीरे-धीरे महाराज के दूध से हृदय को विकृत कर देंगे। स्वामी के विषय में यदि अपना सामान्यसा भी छिद्र हो तो उसका निरोध करना चाहिए । कारण, सामान्य