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सोचता हुआ तक्षशिला के निकट पहुँचा । निवास करने वाले लोग सामान्य पथिक की नजर उठाकर देख लेते । खेलकूद के मैदानों में करने वाले सैनिकों के हाथों के शब्दों से उसके लगे । इधर-उधर नगर की समृद्धि देखने में लगे हुए सारथी का मन स्वकार्य में नहीं रहा अतः उसका रथ अन्य पथ में जा टका । बाहरी उद्यानों में सुवेग ने उत्तम हस्तियों को बँधा हुआ पाया । उसे लगा मानो समस्त चक्रवत्तियों के हस्ती - रत्नों को वहां लाकर एकत्र किया गया है । मानो ज्योतिष्क देवताओं के विमानों का परित्याग कर श्राए हों ऐसे उत्तम अश्वों से पूर्ण उत्तम अश्वशाला उसने देखी । राजा भरत के छोटे भाई के आश्चर्यकारी ऐश्वर्य को देखकर मानो उसका सिर दुःखने लगा हो इस प्रकार माथा दबाते-दबाते दूत तक्षशिला में उपस्थित हुआ । मानो ग्रहमिन्द्र ही हों ऐसे स्वच्छन्दवृत्ति का अवलम्बन लिए दूकानों पर बैठे व्यवसायीगरणों को देखता हुआ वह राजद्वार के सम्मुख का उपस्थित हुआ । ( श्लोक ४४ - ६० ) मानो सूर्य तेज का आहरण कर निर्मित हुग्रा है वैसे ही चमकते हुए भाले हाथ में लिए पदातिक सैनिक वहां खड़े थे स्थान पर इक्षु के पत्रों-सी तीक्ष्ण बर्धी लिए जो रक्षकगण खड़े थे उन्हें देखकर लगा मानो वीरता रूप वृक्ष ही पल्लवित हो गया है । कहीं प्रस्तरों को चूर्ण कर देने वाले मुद्गर लिए सैनिक खड़े थे । वे एकदन्त हस्ती - से लग रहे थे । कहीं नक्षत्रों पर्यन्त तीरनिक्षेपकारी एवं शब्दभेदी तीर को भी निक्षेप करने में समर्थ धनुर्धर पीठ में तूणीर कसे और हाथों में काल-धनुष लिए खड़े थे । जैसे द्वारपाल ही हों ऐसे दरवाजे के दोनों ओर सूड उठाए खड़े हुए हाथियों के कारण दूर से वह राजद्वार बड़ा भयंकर लग रहा था । उस नरकेशरी के सिंहद्वार को देखकर सुवेग के मन में विस्मय उत्पन्न हुआ । भीतर प्रवेश को प्राज्ञा पाने के लिए वह राजद्वार पर प्रतीक्षा करने लगा । राजमहल में प्रवेश का यही नियम है । उसके अनुरोध पर द्वारपाल भीतर जाकर बाहुबली से बोला कि आपके अग्रज का सुवेग नामक दूत बाहर खड़ा है । राजा ने उसे भीतर ले आने की आज्ञा दी । छड़ीदार ने बुद्धिमानों में श्रेष्ठ सुवेग नामक दूत को सूर्यमण्डल बुध के प्रवेश-सा उस सभा में लाकर उपस्थित किया ।
। स्थान
में
( श्लोक ६१-६९)
नगर के बहिर्भाग में तरह उसे एक बार धनुर्विद्या का अभ्यास
रथ के घोड़े चमकने