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जिस प्रकार समस्त जलाशयों के जल में चन्द्र का प्रतिबिम्ब पड़ता है उसी प्रकार आप एक होकर भी समस्त जगवासियों के हृदय में निवास करते हैं। हे देव ! जो आपकी स्तुति करते हैं वे जगत् में सभी के स्तुत्य हो जाते हैं। जो आपकी पूजा करते हैं वे सभी के पूज्य हो जाते हैं एवं जो आपको नमस्कार करते हैं वे सभी के नमस्कार योग्य हो जाते हैं। इसीलिए आपकी भक्ति को महान् फलदायी बताया गया है । दुःख रूपी दावानल में दग्ध पुरुषों के लिए आप मेघतुल्य हैं और महामोहान्धकारी मूढ़ मनुष्यों के लिए दीपक तुल्य हैं। पथ के छाया प्रदानकारी वृक्षों की तरह आप धनी, दरिद्र, गुणी, मूर्ख सभी के समान उपकारी है।' (श्लोक ८१०-८१७)
इस भांति स्तुति कर सभी एकत्र होकर प्रभु के चरण-कमलों में भ्रमर-सी दृष्टि निबद्ध कर विनीत कण्ठ से बोले-'हे प्रभो !
आपने भरत और हम लोगों में योग्यतानुसार पृथक-पृथक राज्य विभाजित कर दिया था। हमको जो राज्य मिला था हम उसी में सन्तुष्ट हैं। कारण, प्रभु द्वारा की गई निर्दिष्ट मर्यादा विनयवानों के लिए अलंध्य है; किन्तु हे भगवन् ! हमारे अग्रज भरत अपने और अन्य लोगों से छीनकर लिए हुए राज्य से भी जल में बडवानल की तरह सन्तुष्ट नहीं हैं। उन्होंने जैसे अन्य लोगों के राज्य छीन लिए हैं उसी प्रकार हमारे राज्य भी छीन लेना चाहते हैं । भरत ने अन्य लोगों की भांति ही हम लोगों को भी दूत द्वारा कहला भेजा है 'या मेरी सेवा करो नहीं तो राज्य का परित्याग कर चले जायो।' हे प्रभु ! अपने को बलशाली समझने वाले भरत के कथन मात्र से भीत की भांति हम पिता प्रदत्त राज्य किस प्रकार त्याग कर सकते हैं ? फिर अधिक समृद्धि की कामना नहीं करने पर भी हम भरत की सेवा क्यों करेंगे ? जो अतृप्त होते हैं वे ही स्व मान विनाशकारी अन्य की सेवा स्वीकृत करते हैं। हम न राज्य परित्याग करना चाहते हैं न उनकी सेवा । अतः हमारे लिए युद्ध के अतिरिक्त दूसरा कोई पथ नहीं है। फिर भी आपको पूछे बिना हम कुछ करना नहीं चाहते।'
(श्लोक ८१८-८२६) पुत्रों की बात सुनकर निर्मल केवल-ज्ञान से जो समस्त जगत् को देख सकते हैं, दयालु भगवान् आदीश्वरनाथ उनसे बोले-'हे वत्सगण, पुरुष-व्रतधारी वीर पुरुष को तो अत्यन्त द्रोहकारी शत्रु से