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प्रजापति भरत ने चार द्वार विशिष्ट निज नगर के पूर्वद्वार से इस प्रकार प्रवेश किया जिस प्रकार भगवान् ऋषभदेव समवसरण में प्रवेश करते हैं। शुभ लग्न के समय जिस प्रकार एक साथ महाघोष वाद्य बजते हैं उसी प्रकार नगर में निर्मित प्रत्येक मञ्च पर संगीत प्रारम्भ होने लगा। महाराज जैसे-जैसे अग्रसर हो रहे थे वैसे-वैसे राजपथ के दोनों पार्श्व स्थित अट्टालिकाओं से नर-नारीगण आनन्द से उपहार देने की तरह खीलों का वर्षण कर उनका स्वागत करने लगे। पुरजनों ने चारों ओर से पुष्प वर्षण कर हस्ती को चारों ओर से आच्छादित कर दिया। उससे हस्ती पुष्पमय रथ-सा प्रतीत होने लगा। उत्कण्ठित लोगों के अकुण्ठ उत्साह सहित चक्रवर्ती धीरे-धीरे राजपथ पर आगे बढ़ने लगे। हस्ती का भय न कर जनसमूह उनके निकट पाने लगा और उन्हें फलादि उपहार देने लगा। कारण, आनन्द ही बलवान होता है। भरत हाथी को अंकुश द्वारा विद्ध कर प्रत्येक मंच के निकट खड़े रखते थे। उस समय दोनों ओर अवस्थित मंच की अग्रवत्तिनी रूपसियां एक साथ कर्पूर द्वारा चक्रवर्ती की आरती उतारती थीं। इससे महाराज दोनों ओर चन्द्रसूर्य सह मेरुपर्वत से लग रहे थे। अक्षत की तरह मुक्ता भरे थाल ऊँचे कर चक्रवर्ती का स्वागत करने के लिए दुकानों के अग्रभाग में में खडे वणिकगण दष्टि के द्वारा उन्हें आलिंगन कर रहे थे । राजपथ के दोनों ओर की अट्टालिकाओं के द्वारदेश पर खड़ी कुलीन सुन्दरियों के मांगलिक महाराज अपनी बहिनों द्वारा कृत मांगलिकों की भांति स्वीकार कर रहे थे। उन्हें देखने की इच्छा से भीड़ में पिसे लोगों को देखकर महाराज अपना अभयदानकारी हस्त उत्तोलित कर छड़ीदारों द्वारा उनकी रक्षा करवाते थे। इस प्रकार अनुक्रम से चलते हुए महाराज भरत ने पिता के सात मंजिलों वाले महल में प्रवेश किया।
(श्लोक ६३९-६५७) उस राज-प्रासाद के सम्मुख प्रांगण के दोनों ओर दो हाथी बँधे थे। वे राजलक्ष्मी के क्रीड़ा पर्वत से लगते थे । सूवर्ण कलश-सा उसका मुख्य द्वार इस प्रकार शोभा पा रहा था जैसे चक्रवाकों की पंक्तियों से नदी शोभा पाती है। आम्रपल्लवों से सुशोभित वह प्रासाद इस प्रकार सुशोभित था जैसे इन्द्र नीलमणि के कण्ठहार से ग्रीवा सुशोभित होती है। उस प्रासाद में कहीं मुक्ता के, कहीं क' र चूर्ण के, कहीं चन्द्रकान्त मरिण के मङ्गल स्वस्तिक रचित थे।