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[२१५ लगता था मानो वे स्वर्ग को भी धूपित करना चाह रहे हैं।।
(श्लोक ६११-६२३) ऐसी सुसज्जित नगरी में प्रवेश करने की इच्छा से पृथ्वी के इन्द्र भरत चक्रवर्ती शुभ मुहूर्त में मेघ के समान गर्जन करने वाले हस्ती पर प्रारूढ़ हुए। आकाश जिस प्रकार चन्द्रमण्डल से शोभा पाता है उसी प्रकार कर्पूर चूर्ण-से श्वेत छत्र से वे शोभित होने लगे। दोनों चँवर इस प्रकार डुलाए जा रहे थे मानो गंगा और सिन्धु भक्तिवश अपने शरीर को छोटाकर चँवर रूप में उनकी सेवा कर रही हों। स्फटिक पर्वतों की शिला का निष्कर्ष लेकर बुने हुए हों ऐसे उज्ज्वल, अति सूक्ष्म कोमल और धन-सन्नद्ध वस्त्रों से वे सुशोभित होने लगे। मानो रत्नप्रभा पृथ्वी ने प्रेमावेश में निजसार अर्पण कर दिया हो ऐसे विचित्र रत्नालंकारों से उनका सारा शरीर अलंकृत हो रहा था। फणों पर मणिधारक नागकुमार देवताओं द्वारा परिवृत नागराज की तरह माणिक्यमय मुकुटधारी राजाओं द्वारा वे सेवित हो रहे थे। चारण देवता जैसे इन्द्र का गुणगान करते हैं उसी प्रकार चारण और भाट जय-जय शब्दों से सबको आनन्दित करते हुए भरत के अद्भुत गुणों का कीर्तन कर रहे थे। ऐसा लगता था मानो मांगलिक वाद्यों के शब्दों से प्रतिध्वनियों के बहाने आकाश भी उनका मंगल-गान कर रहा हो । तेज में इन्द्र तुल्य और पराक्रम के प्रागार महाराज भरत ने रवाना होने को सी इच्छा से हस्ती को आगे बढ़ाया । अनेक दिनों पश्चात् पाए अपने राजा के लिए ग्राम और नगरों से इतने लोग आए थे मानो वे स्वर्ग से उतर पाए हों या धरती फटकर निकले हों। महाराज की समस्त सैन्य और उन्हें देखने के लिए समवेत जनता को देखकर लगा मानो पूरा मृत्युलोक ही एक जगह एकत्र हो गया हो। उस समय चारों प्रोर केवल नरमुण्ड ही दिखाई दे रहे थे। तिल धरने की भी वहाँ जगह नहीं थी। कई हर्ष से उत्साहित होकर भाट की तरह महाराज भरत की स्तुति कर रहे थे, कई वस्त्रांचल से हवा कर रहे थे, मानो वस्त्रांचल ही उनका चँवर हो। कई युक्तकर ललाट पर रखकर सूर्य को जिस प्रकार नमस्कार किया जाता है उसी प्रकार नमस्कार कर रहे थे। कई माली की भाँति उन्हें पुष्प-फल अर्पण कर रहे थे, कई कुल देवता समझकर उन्हें वंदन कर रहे थे तो कई गोत्र-वृद्ध की तरह उन्हें पाशीर्वाद दे रहे थे।
(श्लोक ६२४-३८)