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[२१३ को उसी प्रकार ग्राक्रान्त करने वाले महाराज भरत जैसे द्वितीय वैताढ्य पर्वत हों ऐसे वहां बहुत दिनों तक रहे । (श्लोक ५८५-५८७)
एक दिन समस्त भरत क्षेत्र के विजेता भरतपति के चक्र ने अयोध्या की ओर चलना प्रारम्भ कर दिया। महाराज भरत भी स्नान, वस्त्र परिधान, बलिकर्म, प्रायश्चित और कौतुक मंगल कर इन्द्र की भांति गजेन्द्र पर प्रारूढ़ हो गए । मानो कल्पवृक्ष हों ऐसी नवनिधि से पूर्ण भण्डारयुक्त, मानो सुनन्दा के चौदह स्वप्नों के पृथक्पृथक् फल हों ऐसे चौदह रत्नों से परिवृत, राजन्यों की कुल - लक्ष्मी
सूर्यम्पश्या बत्तीस हजार विवाहित पत्नीयुक्त और बत्तीस हजार देश की बत्तीस हजार अप्सरा तुल्य विवाहित रमणियों से शोभित, सेवकों से बत्तीस हजार ग्राश्रित राजाओं द्वारा सेवित, विन्ध्य पर्वत तुल्य चौरासी लक्ष हस्तियों से सुशोभित, मानो समस्त देशों से चुनकर लाए गए हों ऐसे चौरासी लक्ष अश्व, चौरासी लक्ष रथ श्रौर पृथ्वी प्राच्छादनकारी पैदल सैन्य से परिवृत चक्रवर्ती ने अयोध्या छोड़ने के साठ हजार वर्षों पश्चात् चक्रपथ का अनुसरण करते हुए पुनः अयोध्या की ओर प्रयाण किया । पथ प्रतिक्रान्तकारी चक्रवर्ती की सैन्य द्वारा उत्क्षित धूल से मलिन पक्षीगण ऐसे लगते थे मानो वे मिट्टी द्वारा निर्मित हों । पृथ्वी के मध्य भाग में निवास करने वाले भुवनपति और व्यन्तर देव इस भय से भीत हो गए कि चक्रवर्ती के सैन्य भार से पृथ्वी कहीं विदीर्ण न हो जाए । प्रत्येक गोकुल में प्रायतनपना गोपांगनात्रों द्वारा प्रदत्त मक्खन रूपी अर्ध्य को अमूल्य समझकर चक्री सन्मान सहित स्वीकार कर रहे थे । अन्य हस्तियों के कुम्भ स्थल से प्राप्त मुक्तादि उपहार ले लेकर किरातगण आ रहे थे। महाराज वे सब ग्रहण कर रहे थे । पर्वत पर के पर्वतराजों द्वारा लाए हुए और स्वर्णखान का स्वर्ण सार भी वे ग्रहण कर रहे थे । ग्राम-ग्राम में उत्कण्ठित बन्धुनों की तरह वृद्धगण उपहार लिए आ रहे थे, चक्री प्रसन्नभाव से वे सब ग्रहरण कर उन्हें अनुगृहीत कर रहे थे । वे खेत में प्रविष्टकारी गायों की तरह ग्राम में सर्वत्र विस्तृत सैनिकों को निज प्राज्ञा रूपी उग्रदण्ड से निर्धारित कर रहे थे । बन्दरों की तरह वृक्ष पर चढ़े हुए ग्राम्य बालकों को अपनी ओर सप्रसन्न नयनों से देखते हुए देखकर पिता की तरह उनका वात्सल्य दृष्टि से अवलोकन कर रहे थे । वे धन-धान्यपूर्ण निरुपद्रव ग्राम्य सम्पत्ति को अपनी नीति रूपी लता के फल रूप देख
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