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द्वारा अधिष्ठित थी। उनके नाम थे-नैसर्प, पण्डुक, पींगल, सर्वरत्नक, महापद्म, काल, महाकाल, मानव और शंख । ये नवनिधियां चक्र पर रक्षित थीं। इनकी उच्चता आठ योजन, विस्तार नौ योजन
और दैर्घ दस योजन था । वैदूर्य मणि के दरवाजों से उनके मुख ढके हुए थे। उनकी प्राकृति समान थी एवं वे स्वर्ण व रौप्य से भरे हुए थे । उनकी देह पर चन्द्र-सूर्य अंकित थे। निधि के नामानुसार ही उनके नाम थे। पल्योपम आयु सम्पन्न नागकुमार जाति के देवता अधिष्ठायक थे।
(श्लोक ५६८-५७३) इनमें नैसर्प निधि के द्वारा छावनी, गढ़, खान, द्रोणमुख, मण्डप, पत्तन आदि निर्मित होते हैं। पाण्डुक नामक निधि के द्वारा मान-उन्मान और प्रमाण आदि का परिमाप और धान्य बीज आदि उत्पन्न होते हैं। पींगल नामक निधि के द्वारा नर-नारी, हस्ती-अश्व आदि के समस्त प्रकार की लक्षण विधि ज्ञात होती है । सर्वरत्नक निधि के द्वारा चक्ररत्न आदि सात एकेन्द्रिय और सात पंचेन्द्रिय रत्न उत्पन्न होते हैं। महापद्म नामक निधि के द्वारा सर्व प्रकार के शुद्ध और रंगीन वस्त्र उत्पन्न होते हैं । काल नामक निधि के द्वारा भूत, भविष्य, वर्तमान त्रिकाल की कृषि आदि कर्म और अन्य शिल्पादि का ज्ञान होता है। महाकाल नामक निधि के द्वारा प्रवाल, चांदी, सोना, मोती, लौहादिक की खानें उत्पन्न होती हैं। मारणव नामक निधि से योद्धा, प्रायुध, कवच आदि सम्पत्ति, युद्ध-नीति एवं दण्डनीति उत्पन्न होती है। नवम शंख नामक महानिधि द्वारा चार प्रकार के काव्यों की सिद्धि, नाटय एवं नाटक की विधि एवं समस्त प्रकार के वाद्य उत्पन्न होते हैं। ये सभी गुण सम्पन्न नवनिधियां आकर बोलने लगीं--'हम गङ्गा के मुहाने पर मगध नामक तीर्थ में अवस्थान करती हैं। आपके भाग्य से हम आपके निकट आई हैं। आप अपनी इच्छानुसार हमारा व्यवहार करें और कराएँ । समुद्र क्षय हो सकता है; किन्तु हमारी शक्ति कभी क्षय नहीं होती।' ऐसा कहकर सभी निधियां प्राज्ञापालक की तरह खड़ी हो गयीं।
(श्लोक ५७४-५८४) तब निर्विकारी राजा ने पारणा कर नवनिधियों के लिए आष्टाह्निका उत्सव किया । सुषेण ने भी गङ्गा के दक्षिण प्रान्त को छोटे ग्राम की तरह खेल ही खेल में जय कर लिया। पूर्वापर समुद्र