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निष्कुट प्रदेश जय कर लिया। फिर भरत चक्रवर्ती ने अष्टम तप कर गंगा की आराधना की।
(श्लोक ५३७-५४०) समर्थ पुरुषों की प्रचेष्टा उसी समय सिद्धिदानकारी होती है। अतः गंगादेवी ने प्रसन्न होकर दो रत्नमय सिंहासन और एक हजार आठ रत्नमय कुम्भ भरत को प्रदान किए। रूप लावण्य में कामदेव को भी किंकर के समान बनाने वाले राजा भरत को देखकर गंगा देवो का मन विचलित हो गया। उसने समस्त शरीर में मुखरूपी चन्द्रिका का अनुसरणकारी मनोहर तारका-से मुक्ता के अलङ्कार और केले के भीतर की त्वचा-सा वस्त्र धारण कर रखा था। देख कर लगता था जैसे उसका जलप्रवाह ही वस्त्र रूप में परिणत हो गया है । रोमांच रूपी कण्टकों से उसके उरोजों की कंचुकी खुलने लगी। मानो स्वयंवर माला हो ऐसी धवल दृष्टि वह बार-बार भरत पर निक्षेप करने लगी। उसी अवस्था को प्राप्त गङ्गा लीलाविलास के लिए प्रेम भरे गद्गद् वाक्यों से राजा भरत को विनती कर अपने शयन कक्ष में ले गई। वहां राजा भरत ने विविध भोगउपभोग करते हुए एक हजार वर्ष एक रात्रि की भांति व्यतीत किए। फिर किसी भांति गङ्गा को बोध देकर उसकी आज्ञा से वहां से निकले और अपनी प्रबल सैन्य लिए खण्ड प्रपाता गुहा की ओर गमन किया।
(श्लोक ५४०-५४८) केशरी सिंह जैसे एक वन से दूसरे वन में जाता है उसी प्रकार अखण्ड पराक्रमी राजा भरतने खण्ड प्रपाता गुफा की अोर गमन किया गुहा से कुछ दूरी पर उस बलशाली राजा ने छावनी डाली । वहां उस गुहा के अधिष्ठायक नाटयमाल देव को मन में धारण कर अष्टम तप किया। उससे उस देवता का प्रासन कम्पित हुग्रा । अवधि-ज्ञान से राजा भरत का आगमन अवगत कर जैसे ऋणी ऋणदाता के पास जाता है उसी प्रकार उपहार द्रव्य लेकर वह भरत राजा के निकट गया। महाभक्ति सम्पन्न उस देव ने छह खण्ड भूमि के अलङ्कार तुल्य महाराज भरत को अलङ्कार उपहार में दिए और उनकी सेवा करना स्वीकार किया। नाटक करने वाले नट की तरह नाटयमाल देव को विवेकी चक्रवर्ती ने प्रसन्न होकर विदा दी और पारना कर उस देवता के लिए अष्टाह्निका महोत्सव किया।
(श्लोक ५४९-५५६)