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उसके दोनों कर्ण मानो दो हिंडोले थे। उसके प्रोष्ठ एक साथ पके बिम्बफल तुल्य थे। दांत हीरक कणिका की शोभा को भी पराभव करने योग्य थे। उसकी ग्रीवा उदर की भाँति तीन रेखानों युक्त थी। उसके दोनों बाहु मृणालनाल की तरह सीधे कमल-से कोमल थे। उसके दोनों स्तन कामदेव के कल्याण-कलश से थे । स्तनों ने समस्त स्फीतता को हरण कर लिया था अतः उसका उदर कोमल और कृश था। उसका नाभि-मण्डल भ्रमर के आवत-सा था। उसके लोम-समूह नाभि रूप सरोवर के तट पर अंकुरित दूर्वातुल्य थे। उसके वहदाकार नितम्ब युगल मानो कामदेव के शय्या रूप थे। उसकी दोनों जांघे हिण्डोले के स्वर्णदण्ड-सी सुन्दर थीं। उसके पैर हरिणी के पैरों को भी तिरस्कृत करते थे। उसकी पदांगुलियां करतल-सा कमल का तिरस्कार कर रही थीं। ऐसा लगता था मानो वह हाथ-पांव के अंगुलियों रूपी पत्र से शोभित लता या प्रकाशित नख रूपी रत्न से रत्नाचल की धार या विस्तृत स्वच्छ कोमल और सुन्दर वस्त्र से मृदु-पवन-सी तरंगित सरिता हो । स्वच्छ कान्ति से झलमल करते सुन्दर अवयव में वह अपने स्वर्ण और रत्नमय अलंकारों को सुशोभित कर रही थी । छाया-सी अनुगामिनी छत्र-धारिणी उसकी सेवा कर रही थी। दो हंसों से शोभित कमलिनी की तरह आन्दोलित दो चँवरों से वह सुशोभित थी। लक्ष्मी जिस प्रकार अनेक अप्सराओं द्वारा, गंगा अनेक नदियों द्वारा शोभित होती है उसी प्रकार वह सुन्दरी कन्या समवयस्क हजारहजार सखियों द्वारा शोभित थी।
(श्लोक ५१६-५३४) नमि राजा ने भी महा मूल्यवान रत्न उन्हें उपहार में दिए । कारण, प्रभु जब गृह पाते हैं तब महान् लोग उन्हें सर्व प्रकार का उपहार देते हैं। उनके लिए अदेय कुछ नहीं रहता। तदुपरान्त भरतपति ने उन्हें विदा दी। वे घर लौटकर अपने-अपने पुत्रों को राज्य देकर वैराग्यवान बने भगवान् ऋषभदेव के चरणों में उपस्थित हुए । वहां उन्होंने व्रत ग्रहण किया। (श्लोक ५३५-५३६)
महातेजस्वी भरत चक्रवर्ती वहां से चक्ररत्न के पीछे-पीछे गंगा तट पर आए। गंगा तट से बहुत दूर भी नहीं, समीप भी नहीं हो ऐसे स्थान पर उन्होंने छावनी डाली। महाराज की आज्ञा से सुषेण ने सिन्धु नदी की तरह ही गंगा अतिक्रम कर उसका उत्तरी