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चाहते हैं और इसीलिए इन्होंने उद्दण्ड तीर हमारे पास भेजा है ।' ( श्लोक ४८२ - ४९३ )
इस प्रकार विचार विमर्श कर दोनों युद्ध के लिए तैयार होकर ग्रपनी-अपनी सेना से पर्वत शिखर प्राच्छादित करने लगे । सौधर्म और ईशान पति की देव सेना की तरह दोनों की प्रज्ञा से विद्याधरों की सेना ने आना प्रारम्भ किया। उनके किल - किल शब्दों से लगता मानो वैताढ्य पर्वत हँस रहा है, गरज रहा है. फट रहा है । विद्याधरेन्द्रों के सेवकगण वैताढ्य पर्वत की गुहा की भाँति सोने के वृहद्-वृहद् ढोल बजाने लगे । उत्तर और दक्षिण के नगर जनपद और ग्राम के नायक मानो रत्नाकर के पुत्र हों इस प्रकार विभिन्न प्रकार के रत्न, अलंकार धारण कर गरुड़ की भाँति अस्खलित गति से आकाश में विचरण करने लगे । एक साथ जाते हुए नमि विनमि दोनों एक दूसरे के प्रतिबिम्ब से लगते थे । अनेक विचित्र माणिक्यों की प्रभा से दिक् समूहों को प्रकाश करने वाले विमान में बैठकर वे वैमानिक देव नहीं हैं यह प्रतिपन्न न हो इस प्रकार चलने लगे । अनेक पुष्करावर्त्त मेघों की भाँति मद बिन्दु बरसाने वाले एवं गरजने वाले गन्ध हस्ती पर प्रारूढ़ होकर चलने लगे । अनेक सूर्य और चन्द्र के तेज से परिपूर्ण स्वर्ण और रत्न निर्मित रथ में बैठकर चलने लगे । अनेक प्रकाशपथ पर उत्तम गति के द्रुतधावनकारी अश्वों पर चढ़कर वायुकुमार देवों की भाँति चलने लगे । अनेक हाथों में अस्त्र लेकर वज्र कवच धारण कर मर्कट की भाँति उल्लास में उछलते हुए चलने लगे । इस प्रकार विद्याधर सैन्य से परिवृत होकर युद्ध के लिए प्रस्तुत नमि विनमि वैताढ्य पर्वत से नीचे उतर कर भरतपति के सम्मुख उपस्थित
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( श्लोक ४९४ - ५०५)
आकाश से उतरती हुई विद्याधर सेना ऐसी लग रही थी मानो अपने मणिमय विमानों के द्वारा वह आकाश को अनेक सूर्यमय कर रही थी । चमकित हस्ती यूथों से विद्युतमय कर रही थी । वृहद् वृहद् भेरियों के शब्दों से शब्दायमान कर रही थी । अरे ग्रो दण्ड प्रत्याशी ! तू मुझसे क्या दण्ड लेगा ?' ऐसा कहते-कहते विद्या के मद में उन्मत्त उन दोनों विद्याधरों ने युद्ध के लिए भरतपति का आह्वान किया । तदुपरान्त दोनों पक्षों की सेना विविध ग्रस्त्रों के
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