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हैं । इन्हें कष्ट देने का प्रयास तुम्हें उस प्रकार कष्ट देगा जैसे पर्वत पर दन्त द्वारा प्रहार करने वाले हस्तियों को होता है । अभी भी तुम कीट-पतंगों की तरह यहां से दूर चले जाओ नहीं तो तुम्हें इस प्रकार मरना होगा जिस प्रकार आज तक कोई नहीं मरा ।
( श्लोक ४४० - ४४५)
यह सुनकर मेघमुख नागकुमार देवगण भयभीत हो गए और वर्षा को इस प्रकार समेट लिया जिस प्रकार ऐन्द्रजालिक इन्द्रजाल को । फिर वे किरातों से बोले -- 'तुम लोग महाराज भरत की शरण ग्रहरण करो ।' ऐसा कहकर स्व- श्रावास को चले गए ।
( श्लोक ४४६ - ४४७ )
देवताओं के वाक्य से निराश होकर म्लेच्छगरणों ने कोई श्राश्रय-स्थल न पाकर राजा भरत की शरण ग्रहरण की । उन्होंने मेरु पर्वत के सार से स्वर्ण का ढेर, अश्वरत्न के प्रतिबिम्ब से लक्ष-लक्ष घोड़े राजा भरत को उपहार में दिए। फिर करबद्ध होकर माथा झुकाए सुन्दर वाक्यगर्भित वाणी से जैसे बन्दीजनों के सहोदर हों, बोले - ' हे जगत्पति, प्रखण्ड, प्रचण्ड पराक्रमी आपकी जय हो । छह खण्ड - पृथ्वी पर प्राप इन्द्र तुल्य हैं । महाराज, हमारे प्रदेश के दुर्गतुल्य वैताढ्य पर्वत के द्वार को आपके अतिरिक्त और कौन खोल सकता है ? हे विजयी, आकाश के ज्योतिष चक्र की तरह जल पर समस्त सेना की छावनी रखने की शक्ति और किसमें है । हे स्वामी, अद्भुत शक्ति के लिए आप अजेय हैं यह अब हम समझ गए हैं । अतः हम ज्ञानियों के समस्त अपराध प्राप क्षमा करें । हे नाथ, नवीन जीवन देने वाले आप हमारे रक्षक बनें । आज से हम आपके श्राज्ञानुवर्ती रहेंगे ।' कृतविद् भरत ने उन्हें अपने अधीन कर लिया और सत्कारपूर्वक विदा किया। कहा भी गया है - उत्तम पुरुष का क्रोध प्ररणाम की अवधि तक ही रहता है अर्थात् विरोधी जब तक नत नहीं होता तब तक ही उसका क्रोध रहता है । चक्रवर्ती की प्राज्ञा से सेनापति सुषेण ने समुद्र और पर्वत की मर्यादा रूप समुद्र के उत्तर निष्कुट तक अर्थात् द्वार पर्यन्त सबको जय कर लिया । चक्रवर्ती भरत ने दीर्घकाल तक वहां सुखपूर्वक अवस्थान किया मानो वे अपने साहचर्य से अनार्यों को भी प्रार्य बनाना चाहते हों ।
( श्लोक ४४८-४५९)