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पवन से जैसे मेघ विस्तृत हो जाते हैं उसी प्रकार चक्रवर्ती के हस्त स्पर्श से चर्मरत्न बारह योजन पर्यन्त विस्तृत हो गया । समुद्र जल के मध्य द्वीप में जिस प्रकार मनुष्य रहते हैं उसी प्रकार चर्मरत्न पर समस्त सैन्य सहित महाराज भरत अवस्थित हो गए । तदुपरान्त विक्रम से जैसे क्षीर समुद्र शोभित होता है उसी प्रकार सुन्दर कान्ति सम्पन्न ९९वें हजार शलाकाओं से सुशोभित वरण और ग्रन्थि रहित कमल नाल से सीधे सुवर्ण दण्ड युक्त जल, धूप, हवा और धूल से बचाने में समर्थ छत्र रत्न को राजा ने स्पर्श किया जिससे चर्मरत्न की तरह वह भी विस्तृत हो गया । इस छत्र दण्ड पर अन्धकार विनाश करने के लिए राजा ने सूर्य सा मणिरत्न रखा । छत्ररत्न और चर्मरत्न का वह सम्पुट प्रवहमान अण्डे - सा लगने लगा । उससे लोक में ब्रह्माण्ड की कल्पना उत्पन्न हुई । गृही रत्न के प्रभाव से उस चर्मरत्न पर उत्कृष्ट खेत-सा सुबह बोया धान्य सन्ध्या में उत्पन्न होने लगा । चन्द्र के प्रसाद की तरह उससे सुबह बोया कुम्हड़ा, पालक, मूली आदि दोपहर में फलने लगे । सुबह बोए ग्राम, केला आदि फलों के वृक्ष भी दोपहर में महापुरुषों द्वारा आरम्भ किए कार्य जिस तरह सफल होते हैं उसी प्रकार सफल होने लगे । उस सम्पुट में निवास करने वाले मनुष्यगण उपर्युक्त धान-शाक और फलादि का भोजन कर प्रसन्न थे । उन्हें लगता जैसे वे उद्यान में घूम रहे हैं । अतः इस प्रकार उनको सैनिक जीवन का श्रम भी अनुभूत नहीं हो रहा था । मानो राजमहल में ही निवास कर रहे हों इस प्रकार मध्य लोक के अधिपति राजा भरत चर्मरत्न और छत्ररत्न के मध्य परिवार सहित रहने लगे । उधर कल्पान्त काल की भांति वारि वर्षण करते-करते सात दिन, सात रात व्यतीत हो गई ।
( श्लोक ४२६-४३९)
तब राजा के मन में विचार उत्पन्न हुआ - कौन पापी हमें इस प्रकार कष्ट दे रहा है ? राजा के विचार को ज्ञात कर उनके निकट ग्रवस्थानकारी और महापराक्रमी सोलह हजार यक्ष उनके कष्टों को दूर करने के लिए प्रस्तुत हुए । उन्होंने तूणीर बांधे धनुष पर प्रत्यंचा चढ़ाई और मानो अपनी क्रोधरूपी अग्नि से शत्रुत्रों को जलाकर मार देना चाहते हों इस प्रकार नागकुमार देवताओं के सम्मुखीन होकर बोले – 'अरे, प्रो दुष्ट मूर्खों के दल, तुम क्या पृथ्वीपति भरत चक्रवर्ती को नहीं जानते ? ये समस्त संसार में अजेय