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[२०१ उसको श्वास कमल-सी सुगन्धयुक्त थी। (श्लोक ३७८-३९५)
इस प्रकार के घोड़े पर चढ़कर सेनापति ने यमराज की तरह खड्ग ग्रहण किया। वह खड्ग शत्रु के लिए मृत्यु-पत्र की तरह थी। वह खड्ग ५० अंगुल लम्बी, १६ अंगुल विस्तृत और डेढ़ अंगुल मोटी थी। उसकी सुवर्ण म्यान रत्नजड़ित थी। वह म्यान वाहर थी इसलिए कंचुक मुक्त सर्प-सी लगती थी। वह अत्यन्त तीक्ष्ण थी। द्वितीय वज्र की भांति वह शक्त थी-और विचित्र कमल श्रेणी की तरह दिखने वाले रंगों से शोभित थी। उस खड्ग को धारण कर सेनापति ऐसे लग रहे थे मानो वे पंखयुक्त शेषनाग या कवचधारी केशरी सिंह हों। आकाश में चमकती विद्युत् की भांति चपलता से खड्ग घुमाते हुए उन्होंने अपना अश्व रणभूमि की ओर धावित किया । जलकान्त मरिण की तरह शत्रु रूप जल को चीरता हुआ वह अश्व रण क्षेत्र के मध्य जा उपस्थित हुआ।
(श्लोक ३९६-४०१) सुषेण के अाक्रमण से कुछ शत्रु मृग की भांति व्याकुल हो गए । कुछ जमीन पर शशक की भांति आँखें वन्द कर बैठ गए । कुछ रोहित मृग की भांति थके हुए से वहीं खड़े रहे । कुछ बन्दरों की तरह दुर्गभ स्थान पर जा बैठे। कइयों के हाथ के अस्त्र वृक्ष के पत्रों की तरह जमीन पर खिसक कर गिर गए। कइयों के छत्र उनके यश की तरह धलिसात् हो गए। कुछ के घोड़े मन्त्र द्वारा चित्रार्पित सर्प से स्थिर हो गए। कुछ के रथ इस प्रकार टूट गए मानो वे मिट्टी द्वारा निर्मित हों। कुछ अपरिचितों की भांति इधर-उधर भाग गए। उन्होंने अपने लोगों की अपेक्षा भी नहीं की। समस्त म्लेच्छगरण प्रारण लेकर दसों दिशाओं में भाग छुटे । जल के प्रवाह से आकृष्ट होकर वृक्ष जैसे बह जाते हैं उसी भांति सुषण रूपी जल के प्रवाह में म्लेच्छगरण प्रवाहित हो गए। फिर वे काग की भांति एक स्थान पर एकत्र होकर कुछ क्षरण विचार-विमर्श कर पातूर बालक जैसे मां के पास जाता है उसी प्रकार महानदी सिन्धु के निकट गए और मानो मृत्यु स्नान करने को तैयार हो रहे हैं इस प्रकार बाल की शय्या पर बैठ गए। वहां बैठकर प्राकाश की ओर मुख किए मेघमुख प्रादि नागकुमार जातीय स्वकुल के देवताओं को मन ही मन स्मरण करते हुए अष्टम तप किया। अष्टम तप के अन्त में मानो