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सिन्धु नदी में उतर कर सिन्धु समुद्र और वैताढ्य पर्वत के मध्य स्थित दक्षिण सिन्धु नदी निष्कुट (सिन्धु नदी के दक्षिण तटवतीं उद्यान - सा प्रदेश ) को जय करो और बदरी फल की तरह वहाँ के अधिवासी म्लेच्छों को प्रायुध रूपी लकड़ी से झाड़ कर चर्म रत्न का पूर्ण फल प्राप्त करो ।' ( श्लोक २४८ - २५० )
सुषेण सेनापति ने चक्रवर्ती की प्राज्ञा स्वीकार कर ली । उन्होंने जैसे वहीं जन्म ग्रहण किया हो इस प्रकार वहाँ के ऊँचे-नीचे समस्त भागों के दुर्गम स्थानों में जाने के समस्त पथों से वे परिचित थे । वे म्लेच्छ भाषा के ज्ञाता, सिंह के समान पराक्रमी, सूर्य-से तेजस्वी, वृहस्पति-से बुद्धिमान और सर्वलक्षण युक्त थे । वे तत्काल अपने स्थान पर आए । मानो उन्हीं का प्रतिबिम्ब हो ऐसे समस्त राजाओं को चलने का आदेश दिया । फिर स्नान-पूजा कर पर्वत से उच्च गजरत्न पर ग्रारूढ़ हुए । उस समय उन्होंने स्वल्प किन्तु बहुमूल्य अलंकार पहने । कवच धारण किया । प्रायश्चित र कौतुक मंगल किया । उनके कण्ठ स्थित ग्रन्य रत्नों के दिव्य हार ऐसे सुशोभित हो रहे थे मानो जयलक्ष्मी ने उनके गले में अपनी बाहुलता अर्पण कर दी है। पट्ट हस्ती की तरह वे पट्ट चिह्नों से सुशोभित थे । उनकी कमर में मूर्तिमान शक्ति की तरह एक कटार थी । उनकी पीठ पर सरलाकृति स्वर्ण निर्मित दो तूणीर थे । वे दोनों ऐसे लगते थे । मानो पीछे से युद्ध करने के लिए दो वैक्रिय हाथ हों । वे गणनायक दण्डनायक श्रेष्ठी सार्थवाह सन्धिपाल और अनुचरों से युवराज की तरह परिवृत थे । उनका ग्रग्रासन इस प्रकार निश्चल था मानो उस आसन के साथ ही उन्होंने जन्म ग्रहण किया हो । श्वेत छत्र और चँवर शोभित देवोपम वे सेनापति स्व पदांगुष्ठ द्वारा हस्ती को चला रहे थे । चक्रवर्ती की अर्द्ध सैन्य सहित वे सिन्धु तट पर आए। सैनिकों की पदचाप से उड़ने वाली धूल से वह तट ऐसा प्रतीत होता था मानो वहाँ सेतुबन्ध किया गया हो । सेनापति ने अपने हाथ से चर्म रत्न को जो कि बारह योजन तक विस्तृत हो सकता है, जिसमें सुबह बोया हुआ बीज सन्ध्या को उग जाता है, जो नदी, झील, समुद्र को प्रतिक्रम करने में समर्थ है उसे स्पर्श किया । स्वाभाविक रूप से उसके दोनों प्रान्त विस्तृत हो गए । सेनापति ने उसे उठाकर जल पर तेल की भाँति तैरा दिया ।