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स्वीकार कर लिया। तदुपरान्त महाराज ने उन्हें बुलवाकर परिपूर्ण रूप से आदर सत्कार कर विदा किया। कहा भी गया है-महापुरुष अपने आश्रित सामान्य व्यक्तियों की भी अवज्ञा नहीं करते । अष्टम तप का पारना कर महाराज भरत ने वैताढय देव के लिए अष्टाह्निका महोत्सव किया।
(श्लोक २२७-२३६) वहाँ से चक्ररत्न तमिस्रा गुहा की ओर अग्रसर हुआ। राजा भी पदान्वेषी की तरह उसके पीछे-पीछे चलने लगे । अनुक्रम से वह तमिस्रा गुहा के समीप पहुँचा। वहाँ सैन्य के लिए स्कन्धावार स्थापित किया गया। स्कन्धावार ऐसा लग रहा था मानो विद्याधर नगर ही वैताढय पर्वत से नीचे उतर आया हो। उस गुहा के अधिष्ठायक कृतमाल देव को स्मरण कर भरत ने अष्टम तप किया। देव का आसन कम्पित हुप्रा । अवधि ज्ञान से उन्होंने चक्रवर्ती का प्रागमन जाना । बहुत दिनों पश्चात् पागत गुरु की तरह चक्रवर्ती रूपी अतिथि की पूजा करने वे पाए और बोले - 'हे स्वामी, इस तमिस्रा गुहा के द्वार पर मैं आपके द्वारपाल की तरह अवस्थान करता हूँ। ऐसा कहकर उसने भरत का सेवकत्व अंगीकार कर स्त्रीरत्न के योग्य चौदह तिलक और दिव्य अलंकार समूह चक्रवर्ती को उपहार में दिए । साथ ही मानो पहले से ही महाराज के लिए रखे हों ऐसी उनके योग्य दिव्य माल्य और दिव्य वस्त्र दिए। चक्री ने भी वे समस्त स्वीकार कर लिए; कारण कृतार्थ राजा भी दिग्विजय लक्ष्मी के चिह्न रूप दिक्पतियों से प्राप्त उपहारों का परित्याग नहीं करते । अध्ययन के अन्त में उपाध्याय जिस प्रकार शिष्य को छुट्टी देते हैं उसी प्रकार भरतेश्वर ने उसे बुलवाकर उसके साथ शिष्ट व्यवहार कर विदा दी। फिर राजा भरत ने मानो उनके अंश ही हों व सर्वदा साथ में बैठकर भोजन करने वाले, ऐसे राजकुमारों के साथ नीचे पात्र रखकर पारना किया। फिर कृतमाल देवों के लिए अष्टाह्निका महोत्सव किया। बोला भी गया है-नम्रता से जिसे अपना बनाया गया है उसके लिए प्रभु क्या नहीं करते?
__ (श्लोक २३७-२४७) द्वितीय दिन महाराज ने सुषेण नामक सेनापति को बुलवाया। तत्पश्चात् इन्द्र जिस प्रकार नैगमेषी देव को आदेश देता है उसी प्रकार उन्हें आदेश देते हुए बोले-'तुम चर्म रत्न द्वारा