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स्वजीवन सुरक्षित रखना चाहते हो तो तुम्हारा सर्वस्व हमें देकर हमारी सेवा करो ।' (श्लोक ११६-१३१)
उस लिपि को पढ़कर मन्त्री अवधिज्ञान से विचार कर और जानकर उस तीर को मगधाधिपति को और सबको दिखाकर उच्च स्वर में बोला - 'हे मिथ्या साहसकारी, अर्थ बुद्धि से निज स्वामी के अहितकारी और इस प्रकार अपनी स्वामिभक्ति को प्रमाणित करने वाले राजगरण, तुम्हें धिक्कार है ! इस भरत क्षेत्र के प्रथम तीर्थंकर श्री ऋषभदेव स्वामी के पुत्र भरत प्रथम चक्रवर्ती हुए हैं । वे हमसे उपहार चाहते हैं और इन्द्र की भांति प्रचण्ड शासनकारी हम लोगों को अधीन करना चाहते हैं । इस पृथ्वी पर समुद्र का शोषण किया जा सकता है, मेरु पर्वत को उखाड़ा जा सकता है, यमराज को विनष्ट किया जा सकता है, पृथ्वी को उलटाया जा सकता है, वज्र को चूर्ण किया जा सकता है, वड़वाग्नि निर्वापित की जा सकती है किन्तु चक्रवर्ती को जय नहीं किया जा सकता। इसलिए हे राजन्, अल्प बुद्धि वाले इन लोगों की उपेक्षा कर चक्रवर्ती को प्रणाम करने चलिए ।' ( श्लोक १३२-१३८ )
गन्ध हस्ती के मद को सूंघकर जैसे अन्य हस्ती शान्त हो जाते हैं वैसे ही मन्त्री की बात सुनकर और तीर की लिपि पढ़कर मगधपति शांत हो गए । वे उसी समय उस तीर को और उपहार लेकर राजा भरत के पास गए एवं उन्हें प्रणाम कर बोले – 'हे पृथ्वीपति, पूर्णिमा के चन्द्र की भांति भाग्यवश ही आज आपके दर्शन मिले हैं । भगवान् ऋषभदेव ने जैसे तीर्थंकर होकर पृथ्वी पर विजय प्राप्त है उसी प्रकार आप भी चक्रवर्ती बनकर पृथ्वी विजय कीजिए । जिस प्रकार ऐरावत हस्ती-सा अन्य हस्ती नहीं होता, वायु की तरह कोई बलवान नहीं होता, आकाश से अधिक कोई माननीय नहीं होता, उसी प्रकार आप जैसा भी कोई नहीं है । कान पर्यन्त खींच कर लाई हुई प्रत्यंचा से निकले प्रापके तीर को सहन करने में कौन समर्थ है ? हम प्रमादियों पर दया कर श्रापने हमें कर्त्तव्य स्मरण करवाने दूत से इस तीर को भेजा इसलिए हे नृप शिरोमणि, आज से आपकी आज्ञा को शिरोमरिण की तरह हम धारण करेंगे । आपके द्वारा नियुक्त मैं पूर्व दिशा में आपके जयस्तम्भ की तरह निष्कपट भक्ति से इस मगध तीर्थ में वास करूँगा । यह राज्य मेरा समस्त
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