________________
१-०]
के लिए विश्राम स्थल में उत्तम भोजन प्रस्तुत करने में समर्थ ऐसे गृहपतिरत्न, विश्वकर्मा की भांति शीघ्र स्कन्धावार बनाने में समर्थ वर्द्धकिरत्न और चक्रवर्ती के स्कन्धावार के समान विस्तृत होने में समर्थशाली चर्मरत्न और छत्ररत्न महाराज के संग चले । अपनी ज्योति से सूर्य चन्द्र की भांति अन्धकार नष्ट करने में समर्थ ऐसे मरिण और कांकरणी नामक दो रत्न भी चले । सुरासुरों के श्रेष्ठ अस्त्रों के सार से निर्मित हों ऐसा उज्ज्वल खड्गरत्न नरपति के ( श्लोक ४०-४६)
साथ चला ।
सेना सहित भरतेश्वर प्रतिहार की तरह चक्र के पीछे चलने लगे। उसी समय ज्योतिषियों के मतानुकूल पवन और अनुकूल शकुन सब प्रकार की दिग्विजय की सूचना देने लगे । कृषक जिस प्रकार लांगल से भूमि समतल करता है उसी प्रकार अग्रगामी सुषेण सेनापति दण्डरत्न से पृथ्वी को समान करते हुए चले । सैन्य गमन से उड़ती हुई रज से मलिन बना आकाश रथ और अस्त्रों पर उड्डीयमान पताका रूपी बलाका से सुशोभित हो रहा था । जिसका अन्तिम भाग दिखाई नहीं पड़े ऐसी चक्रवर्ती की सेनावाहिनी निरन्तर प्रवाहित गंगा सी लग रही थी । दिग्विजय के उत्सव के लिए रथ चीत्कार शब्द से, अश्व हषारव से, हाथी वृहृतीनाद से परस्पर शीघ्रता कर रहे थे । यद्यपि सेना चलने के कारण धूल उड़ रही थी फिर भी अश्वारोहियों के बल्लमों के अग्रभाग भलभल कर रहे थे । वे मानो प्रवृत सूर्य किरणों का उपहास कर रहे हों । सामानिक देवताओं के द्वारा परिवृत इन्द्र की भांति मुकुटधारी और वशंवद राजन्य परिवृत राजकु जर भरत मध्य भाग में शोभित हो रहे थे । ( श्लोक ४७-५५)
प्रथम दिन एक योजन पथ प्रतिक्रम कर चक्र रुक गया । उस दिन से योजन का परिमाण हुआ । रोज एक-एक योजन पथ अतिक्रम कर राजा भरत कुछ दिनों पश्चात् गंगा के दक्षिण तट के निकट आ पहुंचे। गंगा की विस्तृत भूमि को भी सेना के लिए पृथक्-पृथक् छावनियों से संकुचित कर वहां विश्राम किया उस समय गंगा की तट भूमि वर्षाकालीन तट भूमि की तरह हस्तियों के झरते हुए मदजल से पंकिल हो गई । मेघ से जैसे समुद्र जल ग्रहण करता है उसी प्रकार गंगा के निर्मल प्रवाह से उत्तम हस्ती इच्छा