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और पवित्र जलधारा से धरणीपति को स्नान कराया। स्नान करके राजा ने दिव्य विलेपन किया। दिक प्रकाशित करने वाले उज्ज्वल वस्त्र पहने । ललाट पर मंगलमय चन्दन का विलेपन धारण किया । वह यशरूपी वृक्ष के नवीन अंकुर की भांति लगने लगा। आकाश जैसे वृहद् तारों के समूह को धारण करता है उसी प्रकार निज यशकुञ्ज के समान उज्ज्वल मुक्ता के पाभरण उन्होंने धारण किए। स्वर्ण कलश-से जैसे प्रासाद शोभित होता है ऐसे अपनी किरणों से सूर्य को लज्जित करने वाले मुकुट से वे शोभित हए। लक्ष्मी के निवास रूप कमल को धारण करने वाले पद्म सरोवर में जैसे चल हिमवन्त पर्वत शोभित होता है उसी प्रकार स्वर्ण कलशयुक्त श्वेत छत्र से वे सुशोभित हुए। सर्वदा निकट रहने वाले प्रतिहार की भांति सोलह हजार यक्ष भक्त होकर उनके आस-पास एकत्र हुए। फिर इन्द्र जिस प्रकार ऐरावत पर आरोहण करता है उसी प्रकार उच्च कुम्भस्थल के शिखर से दिकरूपी मुख को प्रावत कारी रत्नकुजर नामक हस्ती पर वे आरोहित हुए। उसी समय उत्कट मद धारा से द्वितीय मेघ के सदृश उस उत्तम जातीय हस्ती ने गम्भीर गर्जन किया। मानो आकाश को पल्लवित कर रहे हैं इस प्रकार दोनों हाथ उठाकर चारणगण एक साथ जय-जय ध्वनि करने लगे। जिस प्रकार वाचाल गायक अन्य गाने वालों को गाना गाने के लिए बाध्य करता है उसी प्रकार दुन्दुभि के उच्च स्वर ने दिकसमूह को शब्दायमान करने को विवश किया। अन्य सैनिकों को पुकारने वाले दूत रूप अन्य मङ्गलमय श्रेष्ठ वाद्य बजने लगे। धमायमान पर्वत की भांति सिन्दूरधारणकारी हस्ती यूथ से, विभिन्न रूप धारण किए रेवन्त अश्व सदृश अश्व से, स्व मनोरथ की भांति विशाल-विशाल रथ से और सिंह को वश में करने वाले पराक्रमी पदातिक सैन्य से अलंकृत महाराज भरतेश्वर ने मानो सैनिकों की पदधूलि से दिक् समूह को वस्त्रावृत कर पूर्व दिशा में प्रयारण किया।
___ (श्लोक १४-३९) ___ उस समय आकाशचारी सहस्रमाली सूर्यबिम्ब की भांति हजार यक्षों से सेवित चक्ररत्न सेना के अग्रभाग में चलने लगा । दण्ड रत्न धारणकारी सुषेण नामक सेनापतिरत्न अश्वरत्न पर प्रारोहण आगेआगे चला । शान्ति करने की विधि से शान्तिमन्त्र तुल्य पुरोहितरत्न राजा के साथ-साथ चले। चलती हुई अन्नशाला की भांति सैनिकों