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________________ [ १७७ था और दूसरे में अक्षमाला सुशोभित थी । बाई ओर के दोनों हाथों में बिजोरा और पाश था । उसकी देह का वर्ण स्वर्ण कान्तिमय था और वाहन हस्ती था । इस प्रकार भगवान् ऋषभ के तीर्थ में उनके निकट अवस्थानकारिणी प्रतिचक्रा ( चक्रेश्वरी) शासन देवी बनी । उसकी कान्ति स्वर्ण की-सी थी, वाहन था गरुड़ । उसके दाहिने हाथों में वरद्-मुद्रा, तीर, चक्र और पाश था और बाएँ हाथों में धनुष, वज्र, चक्र और अंकुश था । ( श्लोक ६८० - ६८२ ) फिर नक्षत्रों से घिरे चन्द्र की भांति महर्षियों से परिवृत भगवान् अन्यत्र विहार कर गए। राह में चलते समय मानो वृक्ष भक्तिवश उन्हें प्रणाम करते, कांटे अधोमुख हो जाते, पक्षी उनकी प्रदक्षिणा देते । विहार करने के समय ऋतु और वायु उनके अनुकूल आवर्तित और प्रवाहित होते । कम से कम एक करोड़ देवता उनके साथ रहते । जन्मान्तर में उत्पन्न कर्म को नाश करते देख भयभीत होकर प्रभु के केश, दाढ़ी और नाखून बढ़ते नहीं । प्रभु जहां जाते वहां वैर, महामारी, अनावृष्टि, प्रतिवृष्टि, दुर्भिक्ष और स्वचक्रपरचक्र का भय नहीं रहता । इस प्रकार विश्व को अलौकिक क्षमता से चकित कर संसार अरण्य में भ्रमणकारी जीवों पर अनुग्रह करने की इच्छा से भगवान् नभ में वायु की भांति पृथ्वी पर अप्रतिबद्ध भाव से विचरण करने लगे । ( श्लोक ६८३-६८९) (तृतीय सर्ग समाप्त) चतुर्थ सर्ग फिर अतिथि के लिए मनुष्य जिस प्रकार उत्कण्ठित होता है उसी प्रकार उत्कण्ठित भरत विनीता नगरी के मध्य मार्ग से होकर श्रायुधागार में गए । चक्र को देखते ही प्रणाम किया । कारण, क्षत्रियगण शस्त्र को साक्षात् देवता या परमेश्वर ही समझते हैं । भरत ने रोम हस्तक को हाथ में लेकर चक्र को पोंछा । यद्यपि चक्ररत्न पर धूल नहीं रहती फिर भी भक्तों की यही रीति है । फिर उदित होते सूर्य को जिस प्रकार पूर्व समुद्र स्नान कराता है उसी प्रकार महाराज भरत ने चक्ररत्न को पवित्र जल से स्नान कराया । मुख्य गजपति के पीछे की ओर जिस प्रकार चित्र अंकित रहता है
SR No.090513
Book TitleTrishashti Shalaka Purush Charitra Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGanesh Lalwani, Rajkumari Bengani
PublisherPrakrit Bharti Academy
Publication Year1989
Total Pages338
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, History, Story, & Biography
File Size24 MB
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