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धूप चारों ओर प्रसारित करने लगा । सार्थ ने पथ के दोनों चोर के वृक्षों के नीचे विश्राम ले लेकर ग्रागे बढ़ना प्रारम्भ किया । जो प्यासे होते वे प्याऊ से पानी पी-पीकर वृक्षों के नीचे कुछ देर सो जाते । महिषों की जीभें इस प्रकार बाहर निकलने लगीं जैसे निःश्वास ही उन्हें बाहर धक्का दे रहा है । जो उन्हें चला रहे थे उनकी मार का भी भय न कर वे कीचड़ कादे में उतरने लगे । सारथी के चाबुक से पिटने पर भी उसकी उपेक्षा कर बलद दूरवर्ती वृक्षों की छाया में जाकर खड़े होने लगे । गरम लौहशलाकाओं से जिस प्रकार मोम पिघल जाता है उसी प्रकार सूर्य की उत्तप्त किरणों के स्पर्श से मनुष्यों की देह से स्वेदधारा प्रवाहित होने लगी । पथ की धूल ग्रग्निकुण्ड की राख की भांति उष्ण हो गयी । सार्थ के साथ जो स्त्रियाँ थीं वे राह में जलाशय देखते ही उसमें उतर कर स्नान करने लगीं और पद्मनाल उखाड़ कर गले में लपेटने लगीं । पसीने से उनके परिधान वस्त्र भीगकर इस प्रकार देह से सटे जा रहे थे लगता जैसे अभी-अभी स्नान कर वे गीले वस्त्रों में ही चल रही हैं । मनुष्य डाक, ताड़, हिंताल, कमल और कदली के पत्रों से हवा कर कर पसीना सुखाने लगे । (श्लोक ८०-८९ )
ग्रीष्म के पश्चात् ग्रीष्म की ही भाँति पथ के लिए विघ्नकारी वर्षा ऋतु का ग्राविर्भाव हुआ । यक्ष की भांति विराट धनुष लिए और जलधारा रूप वाण बरसाते हुए मेघ ग्राकाश में छा गए । सार्थ के समस्त लोग भयभीत से उसी ओर देखने लगे । बालक जिस प्रकार अधजली लकड़ी घुमा घुमाकर भय दिखाते हैं उसी प्रकार बिजली चमक चमक कर उन्हें डराने लगी । वर्षा के जल से उमड़ो हुई जलधारा नदी के कगारों की भाँति पथिकों के चित्त को भी भंग कर रही थी । वृष्टि के जल में ऊँची-नीची धरती एक समान हो गयी थी । सच ही तो कहा है कि जल जब बढ़ जाता है तो विवेक खो देता है | ( दूसरा अर्थ - मूर्ख उन्नति करने पर भी विवेक को प्राप्त नहीं करता । ) ( श्लोक ९०-९४ )
जल, कीचड़ और काँटों से पथ दुर्गम हो गया था । अतः एक योजन पथ अतिक्रम करने पर लगता जैसे एक सौ योजन पथ अतिक्रम कराए हैं । मनुष्य घुटनों तक जल में इस प्रकार चल