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कीमत के लगभग दान करते थे । इस प्रकार एक वर्ष में उन्हों ने तीन सौ अठासी करोड़ अस्सी लाख सुवर्ण मुद्रा की कीमत का धन दान दिया । भगवान् दीक्षा ले रहे हैं यह सुनकर कई लोगों के मन में भी वैराग्य का भाव जागृत हुआ । इसलिए वे कम दान ग्रहण करते थे । यद्यपि भगवान् इच्छानुरूप दान देते थे फिर भी के अधिक नहीं लेते थे । ( श्लोक १७-२५)
वार्षिक दान शेष होने पर इन्द्र का ग्रासन कम्पायमान हुआ । वे भी द्वितीय भरत की तरह उनके निकट आए। अन्य इन्द्र भी हाथ में जल-कलश लेकर उनके साथ हो गए । उन्होंने राज्याभिषेक की भांति दीक्षा महोत्सव सम्बन्धी अभिषेक किया । वस्त्रालंकार विभाग के अधिकारों की भांति इन्द्र वस्त्रालंकार लाए। प्रभु ने उन्हें धारण किया । इन्द्र ने प्रभु के लिए सुदर्शन नामक शिविका तैयार करवाई । वह देखने में अनुत्तर विमान नामक देवलोक-सी थी । इन्द्र के हाथों का सहारा लेकर प्रभु ने उस शिविका पर आरोहण किया । लगा जैसे उन्होंने लोकाग्ररूपी मन्दिर की अर्थात् मोक्ष की प्रथम सीढ़ी पर पदार्पण किया। पहले रोमांचित मनुष्यों ने, पीछे देवताओं ने पुण्यभार की भांति उस शिविका को उठाया । उस समय आनन्द के कारण मंगल वाद्य बजाए जाने लगे । उसके शब्द ने पुष्करावर्त्तक मेघ की भांति दसों दिशाओं को प्राच्छादित कर लिया मानो इहलोक और परलोक की निर्मलता मूर्तिमन्त हो गई है ऐसे दोनों चँवर भगवान् के दोनों ओर डुलने लगे । वृन्दारक जाति के देव चारण की भांति मनुष्य कर्ण को सुख देने वाली प्रभु की जय ध्वनि उच्च शब्द से करने लगे । ( श्लोक २६-३४)
शिविका में उपविष्ट प्रभु उत्तम देवताओं के विमान में रखी शाश्वत प्रतिमा की भांति सुशोभित होने लगे । इन्हें जाते देख बालक, वृद्ध सकल नगरवासी उनके पीछे इस प्रकार दौड़ने लगे जैसे पिता के पीछे बालक दौड़ता है । कोई-कोई मेघ दर्शन को उत्सुक मयूर की भांति दूर से उन्हें देखने के लिए वृक्षों की ऊँची शाखाओं पर जाकर बैठ गए । कोई-कोई राह के मन्दिर एवं अट्टालिका की छत पर चढ़ गए। ऊपर से पड़ती हुई तीव्र धूप को उन्होंने चन्द्र की चांदनी की तरह समझ लिया । किसी का घोड़ा नहीं आने के कारण देर हो जाने के भय से स्वयं ही घोड़े की तरह