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देखा हो। जगत्पति की जंघा पर वृषभ का चिह्न था और माता मरुदेवी ने भी स्वप्न में सर्वप्रथम वृषभ देखा था। इसलिए हर्षित माता-पिता ने शुभ दिन देखकर उत्साह और उद्दीपना के साथ प्रभु का नाम रखा वृषभ । उनके साथ यमज रूप में उत्पन्न कन्या का नाम सुमंगला रखा । यह नाम यथार्थ और पवित्र था । जिस प्रकार वृक्ष क्षेत्रान्तरवर्ती नाले का जलपान करता है उसी प्रकार ऋषभ स्वामी भी इन्द द्वारा अंगुष्ठ में प्रदत्त अमृत योग्य समय प्राप्त होने पर पान करने लगे। पर्वत कन्दरा में जिस प्रकार सिंह शावक शोभा पाता है उसी प्रकार पिता की क्रोड़ में बालक ऋषभ शोभा पाने लगे। पांच समिति जिस प्रकार महामुनि का त्याग नहीं करती उसी प्रकार इन्द द्वारा नियुक्त पांचों धात्रियां एक मुहूर्त के लिए भी प्रभु का परित्याग नहीं करती थीं।
(श्लोक ६४७-६५३) जब भगवान् एक वर्ष के हो गए तब सौधर्मेन्द वंश की स्थापना के लिए वहां आए । सेवक को प्रभु के निकट कभी खाली हाथ नहीं आना चाहिए अतः इन्द्र एक वृहद् इक्षु हाथ में लेकर आए। मूत्तिमान शरद् ऋतु की भांति इन्द इक्षु सहित वहां पाए जहां प्रभु नाभिराज की गोद में बैठे थे। मवधि ज्ञान से इन्द्र के मनोभावों को जानकर हस्ती सूड की भांति उन्हों ने अपना हाथ प्रसारित किया। स्वामी के मनोभाव को समझ कर इन्द ने भी मस्तक झुकाकर वह इक्षु प्रभु को उपहार रूप में प्रदान किया। भगवान् ने वह इक्षु ग्रहण किया था इसलिए इन्द ने अापके वंश का नाम इक्ष्वाकु रखकर स्वर्ग की अोर गमन किया । (श्लोक ६५४-६५९)
___ युगादिनाथ का शरीर स्वेद, रोग, मल रहित एवं सुगन्धयुक्त और सुन्दराकृति वाला, स्वर्णकमल की भांति शोभित था। उनके शरीर का मांस और रक्त गोदुग्ध की भांति उज्ज्वल और दुर्गन्ध रहित था। उनका आहार एवं शौचक्रियादि चर्म चक्ष से अगोचर थे अर्थात् उनका आहार शौचकर्म कोई नहीं देख सकता था। उनके निःश्वास की सुगन्ध विकसित कमल की-सी थी। ये चार अतिशय प्रभु को जन्म से ही प्राप्त थे। वज्र ऋषभनाराच संहनन विशिष्ट प्रभु यह सोचकर धीरे-धीरे चलते कि कहीं पीछे की धरती धंस नहीं जाए। यद्यपि उनकी उम्र छोटी थी फिर भी वे गम्भीर और मधुर स्वर में बोलते थे। कारण, लोकोत्तर प्रभु का बाल्यकाल तो केवल