________________
फिर इन्द ने अवस्वापिनी निदा में माता मरुदेवी को निदित किया। उनके पास उनके पुत्र का प्रतिरूप रखा और स्वयं पांच रूप धारण किए । कारण, जो शक्तिशाली हैं वे अनेक रूप में प्रभु-भक्ति की इच्छा रखते हैं। उन्हीं पांचों रूपों में एक रूप से भगवान् के निकट जाकर नम्रता से प्रणाम कर बोले-'हे भगवन्, आज्ञा दीजिए।' ऐसा कहकर कल्याणकारी भक्तिमय इन्द्र ने अपने गोशीर्ष चन्दन विलेपित दोनों हाथों से जैसे मूत्तिमान कल्याण को ही उठाया हो इस प्रकार भगवान् को उठाया। दूसरे रूप में जगत् के ताप को नाश करने वाले छत्र के समान जगत्पति के मस्तक के पीछे खड़े होकर छत्र धारण किया। तीसरे-चौथे रूप में स्वामी की दोनों बाहुओं की भांति दो रूप से सुन्दर चँवर धारण किया और पंचम रूप में मुख्य द्वारपाल की भांति वज्र धारण कर भगवान् के अग्रभाग में अवस्थित हो गए। फिर जय-जय शब्द से आकाश गु जित करते हुए देवताओं द्वारा परिवत होकर आकाश की ही भांति निर्मल मना इन्द ने पांचों रूपों से आकाश-पथ पर चलना प्रारम्भ किया। तृषातुर पथिक की दृष्टि जिस प्रकार अमृत-सरोवर पर पड़ती है उसी प्रकार उत्सुक देवताओं की दृष्टि भगवान् के अद्भुत रूप पर पड़ी। भगवान् के अद्भुत रूप को देखने के लिए अग्रगामी देवताओं ने चाहा उनके नेत्र पीछे हो जाए। दोनों पार्श्व के देवता स्वामी के दर्शन से तृप्त न होने के कारण इस प्रकार स्तम्भित हो गए हैं कि नेत्रों को दूसरी ओर घुमा ही नहीं पा रहे हैं। पीछे के देवता भगवान् को देखने के लिए आगे आना चाह रहे हैं इसलिए वे अपने प्रभू मित्रों आदि को छोड़कर आगे बढ़ गए। देवराज भगवान् को हृदय के समीप रखकर मानो हृदय में धारण कर ही मेरुपर्वत पर ले गए। वहां पाण्डुकवन में दक्षिण चूलिका के ऊपर निर्मल कान्ति सम्पन्न प्रति पाण्डुक नामक शिला खण्ड पर अर्हत स्नात्र योग्य सिंहासन पर पूर्वदिगाधिपति इन्द आनन्दमय चित्त से प्रभु को गोद में लेकर बैठ गए।
(श्लोक ४१५.४ ) जिस समय सौधर्मेन्द मेरुपर्वत पर आए उस समय महाघोषा नामक घण्टे के नाद से प्रभु का जन्म अवगत कर अट्ठाइस लाख देवताओं द्वारा परिवृत होकर त्रिशूलधारी वृषभवाहन ईशान कल्पाधिपति ईशानेन्द आभियोगिक देवताओं द्वारा निर्मित पुष्पक विमान