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[९५ पर्व के दिन संकीर्ण होते हैं। अर्थात् उस दिन भीड़ होती है।' इस प्रकार इन्द्र के अनुगामी सौधर्म देवलोक के देवताओं के मध्य उत्सुकता के लिए कोलाहल होने लगा। उसी समय इन्दध्वज शोभित वृहत् विमान आकाश से इस प्रकार उतरने लगा जैसे समुद्र में तरंग-शिखर से नौका उतरती है । मेघमण्डल में आच्छादित स्वर्ग को नीचा कर वृक्ष के मध्य से जैसे हस्ती जाता है उसी प्रकार नक्षत्र चक्र के मध्य से आकाश से उतरकर वह विमान बायु वेग से असंख्य द्वीप समुद को अतिक्रम कर नन्दीश्वर द्वीप में जा पहुंचा । पण्डित जैसे ग्रन्थ संक्षेप करते हैं उसी प्रकार इन्द ने उसी द्वीप के दक्षिणार्द्ध के मध्य स्थित रतिकर पर्वत के ऊपर उस विमान को छोटा बनाया। फिर और अनेक द्वीप और समुद अतिक्रम कर विमान को और छोटा करते-करते इन्द जम्बूद्वीप के दक्षिण भरतार्द्ध में आदि तीर्थंकर के जन्म स्थान में पहुँचे । सूर्य जैसे मेरु पर्वत की प्रदक्षिणा देता है उसी प्रकार इन्द्र ने भी उस विमान में स्थित होकर भगवान् के सूतिकागृह की प्रदक्षिणा दी, फिर घर के कोने में जैसे धन रखा जाता है उसी प्रकार ईशान कोन में उस विमान को स्थापित किया।
(श्लोक ३९१-४०६) महर्षि जिस प्रकार मान से अवतरण करते हैं उसी प्रकार इन्द विमान से उतरकर भगवान् के निकट गए। भगवान् को देख कर देवों में अग्रणी शक ने पहले उन्हें प्रणाम किया। कारण, स्वामी के दर्शन मात्र से उन्हें प्रणाम करना उपहार देना है। तदुपरान्त माता सहित प्रभु को प्रदक्षिणा देकर उन्होंने पुनः प्रणाम किया। भक्ति में पुनरुक्ति दोष कहां ? देवताओं ने जिनका मस्तक अभिषेक किया है ऐसे इन्द ने भक्ति के अतिशय में दोनों हाथों से शिशु को मस्तक पर लेकर माता मरुदेवी से कहा-'हे रत्नगर्भा, जगत् प्रकाशक को प्रकाशितकारिणी, हे जगन्माता, मैं आपको नमस्कार करता हूं। आप धन्य हैं । आप पूण्यवती हैं । आपका जन्म सार्थक है। आप उत्तम लक्षणयुक्त त्रिलोक की पुत्रवती रमणियों के मध्य पवित्र हैं । कारण, धर्मोद्धारकारियों में अग्रणी, पाच्छादित मोक्षमार्ग के प्रकाशक भगवान् आदि तीर्थंकर को आपने जन्म दिया है । हे देवि, मैं सौधर्म देवलोक का इन्द अापके पुत्र अर्हत् का जन्मोत्सव करने पाया हूँ । अतः पाप मुझसे डरें नहीं।'
(श्लोक ४०७-४१४)