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कर्म है यों इस दर्शनावरणकर्म की वे सूत्रोक्त प्रसिद्ध हो रही नौ प्रकृतियां है इनको युक्तियोंसे भी सिद्ध कर लो ।
अष्टमोऽध्यायः
चतुर्णां हि चक्षुरादिदर्शनानामावरणाच्चतुर्विधमवबोध्यं तदात्रियमाणभेद त् तद्भेदसिद्धेः । निद्रादयश्च पंच दर्शनावरणानीति भेदाभेदाभ्यामभिसंबंधोत्राविरुद्ध एवेत्युक्तं ॥
चेतना गुरण की, चक्षुः, अचक्षुः आदि परिणति होने वाले दर्शनों के आवरण करनेवाले होने से दर्शनावरण कर्म चार प्रकार का समझना चाहिये, कारण कि उन पौद्गलिक कर्मों करके आवरण किये जा रहे चार दर्शनों के भेद से उन आवरक कर्मों के भेद हो जाने की सिद्धि हो जाती है । ढके जाने वाले पदार्थों की गणना अनुसार ढकनेवाले पदार्थों का भेद मानना प्रतितिसिद्ध है । यों दर्शनावरण के चार भेद तो चेतनागुण की परिणतियों को ढकने के कारण हुये । तथा निद्रा, निद्रानिद्रा आदिक पांच प्रकार के दर्शनावरण कर्म अन्य भी हैं ये भी पांच कर्म उसी दर्शन परिणति का आधात करते हैं यों भेद और अभेद करके यहां सूत्र में पूर्वार्ध और उत्तरार्ध रूपसे संबंध कर लिया जाता है, कोई विरोध नहीं पडता हैं । इस ही बात को सूत्रकार ने उक्त सूत्र में स्पष्ट रूप से कह दिया है । भावार्थ- सूत्र के " 'चक्षुरचक्षुरवधिकेवलानां इस षष्ठी विभक्तिवाले पद का दर्शनावरण पद के साथ भेदरूप करके अन्वय करना चाहिये और " निद्रा निद्रानिद्रा प्रचलाप्रचलाप्रचला स्त्यानगृद्धयश्च इस प्रथमान्त पद का दर्शनावरण के साथ अभेद रूप से संबंध किया जाता है यों सूत्रोक्त सिद्धान्त अविरुद्ध बन रहा हैं । विवक्षा के वश से भेद और अभेद करके संबंध हो जाना सूत्रकार को अभीष्ट है । सिद्धान्तशास्त्र के अनुसार व्याकरणशास्त्रको चलाओ । शब्दानुसारी व्याकरण के अधीन इस वस्तुपरिगति प्रतिप्रादक सिद्धान्तशास्त्र को नहीं बनाओ ।
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अथ तृतीयस्योत्तरप्रकृतिबंधस्य भेदप्रदर्शनार्थमाह; -
अब इस द्वितीय कर्मप्रकृति के उत्तर भेदों का निरूपण करने के पश्चात् तीसरे वेदनीय कर्म की उत्तरप्रकृतियों के बंध का भेदप्रदर्शन करने के लिये सूत्रकार महाराज अग्रिम सूत्र को स्पष्ट कह रहे हैं ।
सदसद्वेद्ये ॥ ८ ॥
सातारूप से यानी स्वानुकूलरूप से वेदनेयोग्य फल को देनेवाला सद्वेद्य कर्म