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अष्टमोऽध्यायः
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ज्ञानावरणमेव मोह इति चेन्न अर्थान्तरभावात् कार्यभेदे च कारणान्यत्वात् । ज्ञानावरणस्य हि कार्यमज्ञानं, मोहस्य तत्त्वार्थाश्रद्धानमचारित्रं चेति । एतेन ज्ञानदर्शनावररणयोरन्यत्वमुक्तं तत्कार्ययोरज्ञानादर्शनयोरन्यत्वात् तदाव्रियमारणयोश्च ज्ञानदर्शनयोरन्यत्वं प्रयुक्तं भेदसाधनं ।
यहाँ कोई तर्क उठाता है, कि ज्ञानाबरण कर्म ही तो मोहकर्म है । जबकि मोह हो जानेपर जीवको हित और अहित की परीक्षा नहीं हो पाती है, तत्त्वों को जीव नहीं समझ पाता है, अतः ज्ञानावरणसे मोहनीय कर्म की कोई विशेषता नहीं दीख पडतो है । ग्रन्थकार कहते हैं कि यह तो नहीं कहना क्योंकि ज्ञानावरणीयसे भेद हो रहा हैं । अर्थको यथार्थ रूपसे जानकर भी मोहनीय कर्म अनुसार सद्भूत अर्थोंका श्रद्धान नहीं किया जाता है । अनेक विद्वान् हिंसा, स्त्रीसेवन, द्यूतक्रीडा को महान् पाप समझते हुये भी तीव्र राग मह हो जानेपर उन कुकर्मोंमें आसक्ति कर बैठते हैं । अनेक जैन विद्वान भो श्मशान वैराग्यवत् अनेक स्थलोंपर अथवा उपदेश देते समय समीचीनरीत्या निर्वेदभावों से परिपूर्ण हो जाते हैं, किंतु शीघ्र ही मोहके माहात्म्य अनुसार विषयोंमें लीन हो जाते हैं । अतः तत्त्वार्थीका अन्त स्तलस्पर्शी श्रद्धान नहीं होने देनेवाले और ठोस चारित्र नहीं पलने देनेवाले मोहनीय कर्म का ज्ञानावरण से भेद ही रहा है। ज्ञान वरण हो प्रतिपक्षी ज्ञ नस्वभाव को न्यून कर देता है, विपरीत नहीं कर पाता है । किन्तु मोहनीय कर्म तो प्रतिपक्षी हो रहे सम्यक्त्व, चारित्र, गुणोंका सर्वथा विपरीत रस करा देता हैं एक बात यह भी हैं कि कार्यों का भेद हो जानेपर कारणोंक भेद अवश्यंभावी है " यह अनुमान प्रमाणसे निति है । भिन्नकार्यमे भित्रकारणप्रमात्वा वश्यंभावात् ” ज्ञानावरण का कार्य अज्ञात है और मोहनीय वर्म का कार्य तत्वार्थो का श्रद्धाना नहीं हो सकना और चारित्र नहीं पलने देना है, दर्शन मोहनीय तो तत्वार्थ का श्रद्धान नहीं होने देता है यों दोनों कर्मों मे महान अन्तर है । इस उक्त कथन करके यानी वस्तुस्वरूपकी अपेक्षा और कार्योंका भेद हो जानेसे ज्ञानावरण, दर्शनावरण कर्मोंका का भी भेद कह दिया गया समझ लेना चाहिये, पहिले प्रकरण में भी स्वपरप्रदर्शक ज्ञान और सत्ताकी आलोचना करने - वाले दर्शनका भेद कहा जा चुका साकार हैं और दर्शन निराकार है । आकार का कोई प्रतिबिम्ब पड जाना नहीं है । क्यों कि चमकीले मूर्त पुद्गल में ही मूर्त पुद्गल का प्रतिविम्ब पड़ा करता है बौद्धों के समान ज्ञानको साकार यानी प्रतिबिम्ब युक्त मानने पर स्मृति, अनुमान, व्याप्तिज्ञान, आगमज्ञान नहीं हो सकेंगे । जबकि भूत, भविष्य कालों के पदार्थ ही वर्तमानमे नहीं हैं तो उनका प्रतिविम्ब ज्ञानमे नहीं, पड़ सकता है सर्वज्ञ भी कोई नहीं हो सकेगा अतः जैन सिद्धान्तमे साकारका अर्थ सविकल्प माना गया हैं, सम्पूर्ण गुणों में ज्ञान ही एक ऐसा विलक्षण