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अष्ठमोध्यायः
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परमुख करके भी अनुभव होने लग जाता है । यों बंध की प्रकृति आदिक विधियोंका श्री उमास्वामी महाराजने इस सूत्रद्वारा शोभा युक्त निरूपण कर दिया है, तभी तो वार्तिककारने " सुसूत्रता: " कहा था । कर्मसिद्धान्त का सूत्रकार द्वारा निरूपण होनेसे ग्रन्थकार को बडी प्रसन्नता हुई है । उन चारों बंधोंमे प्रदेश बंध तो आत्मा के योग नामक यत्न को निमित्त पाकर हो जाते हैं | और आत्माकी विभावपरिणतियां कषायोंको हेतु मानकर स्थितिबंध और अनुभागबंध पड जाते है, योग और कषायोंकी प्रकर्षता, अप्रकर्षतासे कर्मबंध की विचित्रतायें होती रहती है । कारणों के अनुरूप ही तो कार्य होगा । आदि में कहा गया प्रकृति बंध ता मूल प्रकृतिबंध और उत्तरप्रकृतिबंध इन भेदों से दो प्रकार है ।
तत्र मूलप्रकृतिबंधं तावदाह; -
उन प्रकृतिबंध के भेदोंमे सबसे पहिले मूल प्रकृतिबंध को सूत्रकार कहते हैं । . प्राद्यो ज्ञानदर्शनावरणवेदनीयमोहनीयायुर्नामगोत्रांतरायाः ॥ ४ ॥
आदिमे होनेवाला मूल प्रकृतिबंध तो ज्ञानावरण, दर्शनावरण, वेदनीय, मोहनीय, आयु, नाम, गोत्र और अन्तराय इन आठ विकल्पोंवाला है | चेतना गुणकी परिणति ज्ञान को आवरण करनेवाला कर्म ज्ञानावरण है । और चेतना के विवर्त दर्शनको आवरण करनेवाला कर्म दर्शनावरण है । सुखदुःखों का वेदन करानेवाला कर्म वेदनीय है, आत्माको विपरीत रस कराकर सम्यक्त्व और चारित्रसे भ्रष्ट करानेवाला कर्म मोहनीय है । संसार मे जीव को शरीर धारण कराकर रोके रहे वह आयुः कर्म है । अनेक प्रकार शरीर आदिको बनानेवाला नाम कर्म है। ऊंचे, नीचे आचरण अनुसार आत्माको उच्च, नीच, कहलानेवाला गोत्र कर्म है । दाता और पात्र या भोग्य और भोक्ता आदिके मध्यमे मानूं पडकर जो विघ्न उत्पन्न करता है, वह अन्तराय हैं। ये प्रकृतिबंधके आठ भेद है, ज्ञानावरण का उदय हो जाने पर आत्मा ज्ञानरूप परिणत नहीं हो पाता है, जैसे कि जो मनुष्य प्रथमसे ही शीतल प्रदेश या शीतल वायुमे बैठा हुआ है, उसको पसीना नहीं आता है । ऐसे ही दृष्टांत यहां अनुकूल पडेंगे । पसीना आ रहा हो पुनः उसको ठंडी वायु से सुखाया जाय यह दृष्टांत विषम है । वस्तुतः कर्मबंध हो चुकनेपर आत्मा अवधिज्ञान आदि पर्यायोंको ही नहीं धारसकता है ।
सामानाधिकरण्ये सति पूर्वोत्तरवचनविरोध इति चेन्न, उभयनयधर्मविवक्षासद् - भावात् तयोरेकवचन बहुवचनप्रयोगोपपत्तेः । प्रमाणं श्रोतार इति सामान्यविशेषयो रेकत्व बहुत्वव्यवस्थितेर्यथासंभवं कर्त्रादिसाधनत्वं ज्ञानावरणादिशब्दानां । प्रयोगपरिणामादागच्छदेवविशिष्टं कर्म ज्ञानावररणादिविशेषैवभिद्यते अन्नादेर्वातादिविकारवत् ।