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तत्त्वार्थश्लोकवातिकालंकारे
मोक्षको गये हैं। देवयोनिसे मनुष्य होकर मोक्ष जानेवालोंकी संख्या इनसे भी संख्यात गुणी है । इसी प्रकार वेदके अनुयोगमें नपुंसकवेद, स्त्रीवेद, और पुंवेदके उदय होनेपर क्षपकणी चढनेवालोंकी संख्या उत्तरोत्तर संख्यात गुणी अधिक है। प्रत्येक बुद्ध थोडे हैं, बोधितबुद्ध उनसे संख्यात गुणे अधिक हैं। एवं चारित्र, ज्ञान, अवगाहना, संख्या, अन्तर अनुसार भी अल्पबहुत्व आर्ष आगमका अतिक्रमण नहीं कर लगाया जा सकता है।
एक एव तु सिद्धात्मासर्वथेति यकेविदुः, तेषां नानात्मनां सिद्धिमार्गानुष्ठावृथा भवेत् ॥ २५ ॥ क्षेत्राद्यपेक्षं प्रत्युक्तं संसार्येकत्वमञ्जसा, एकात्मवादिनां चैवं तत्र वाचोऽप्रमाणता ॥ २६ ॥ निःशेषकुमतध्वांत विध्वसनपटीपसी, मोक्षनीतिरतो जैनी भानुदीप्तिरिवोज्ज्वला ॥ २७॥
यहां ब्रम्हाद्वैतवादी कह रहे है कि सिध्दि आत्मा तो सभी प्रकारोंसे एकहौ है। शरीर आदि उपाधियोंके द्वारा एकही आत्मा भिन्न भिन्न प्रतिभासित हो रहा है, जैसे कि एक शरीरावच्छिन्न अखण्ड एक आत्मामें कभी “ मेरे सिरमें वेदना है।" कदाचित् " मेरे पांवमें पीडा है, यों खण्ड कल्पना करली जाती है । मुख विवर, घरकी पोल आदि उपाधियोंके हट जानेपर जैसें खण्डरूपेण कल्पित कर लिया गया । आकाश पुनः महा आकाशमें लीन हो जाता है । उसी प्रकार शरीर, इन्द्रिय आदि झगडोंके निवृत्त हो जानेपर खण्डित मान लिया गया आत्मा उसी एक परब्रम्हमें मिल जाता है। अतः सिध्द आत्मा एकही है। अब आचार्य कहते है कि इस प्रकार जो कोई वेदान्त मतानुयायी कह रहे हैं। उनके यहां अनेक आत्माओंका सिध्दि या मोक्ष मार्गमें अनुष्ठान करना व्यर्थ हो जावेगा । जब कि आपके यहां एकही आत्मा है, तो एक जीवके मोक्ष प्राप्त कर लेनेपर सभी जीवोंकी मुक्ति हो जावेगी। न्यारे न्यारे जीवोंका दीक्षा लेना तपश्चरण करना, वैराग्यभाव भावना, धर्म आचरण सब व्यर्थ हो जावेंगें । एक बात यह भी है कि ऐसा कौन अज्ञ जीव होगा जो अपनी सत्ताको मटियामेंट करना चाहेगा। ऐसी मोक्षको कोई नहीं वांच्छेगा जहां कि अपनाही खोज खो जाय अद्वैतवादियोंने जो सिरमें पीडा, पांवमें बाधा या आकाशके खण्डकी चर्चा की थी। वह दृष्टान्त तो विषम