________________
४५६)
तत्त्वार्थश्लोकवातिकालंकारे
कालकी प्रवृत्ति हो जानेपर विदेह क्षेत्रसे मुमक्षका हरण कर भरत, ऐरावतोंमें धर दिया जा सकता है । तब जो मुक्ति होगी वह छठे कालमें मुक्ति हुई समझी जावेगी यों क्षेत्रकी अपेक्षा सिद्धि हो जाना सभी कालोंको धार रहा है। क्योकि सभी क्षेत्रों में उन अन्तकृतकेवलियोंकी सिद्धि माननेपर किसी भी प्रकारसे विरोध नहीं पड़ता है । अवसपिणीके चौथे कालमें लेकर पांचवें कालमें मोक्ष जाना अविरुद्ध है। पांचमे कालमें उत्पन्न हुये जीवको उस पर्यायसे मोक्ष नहीं हो सकती है।
सिध्दिः सिध्दगतौ पुंसां स्यान्मनुष्यगतावपि । अवेदत्वेन सावेदात्रितया द्वास्तिभावतः ॥ ७ ॥ पुल्लिगेनैव तु साक्षाद्व्यतोन्या तथागम-- व्याघातायुक्तिबाधाच्च स्त्र्यादिनिर्वाणवादिनां ।। ८ ॥ साक्षानिर्ग्रन्थलिंगेन पारंपत्तितोन्यतः। साक्षात्सग्रंथलिंगेन सिध्दो निर्ग्रन्थता वृथा ॥ ९ ॥
तीसरे गतिके अनुयोगमें यह कहना है कि प्रत्युत्पन्न नयकी अपेक्षा सिद्धगतिमें ही पुरुषोंकी सिद्धि हो रही है। हां, भूतप्रज्ञापनसे मनुष्योंकी सिद्धि मनुष्यगतिमें भी हो रही कही जाती है । उससे भी पहिले पर्यायका यदि विचार किया जायगा तो चारों भी गतियोंसे आकर मनुष्य पर्याय लेते हुये तद्भव मोक्ष हो सकता है । लिंगकी अपेक्षा यों विचार है कि वस्तुतः वेदरहितपने करके वह सिद्धि होती है। क्योंकि दशमे गुणस्थानसे प्रारम्भ कर चौदहवेंके अनन्ततक वेद कर्मका उदयही नहीं है । हां, अतीत परिणतियोंका विचार करनेपर तो भावसे नवमें गुणस्थानतक तीनों वेदोंका उदय है। अतः भावलिंगकी अपेक्षा तीनों वेदोंसे सिद्धि हो जाती है , द्रव्य वेदकी अपेक्षासे तो पुरुषलिंग करकेही साक्षात् मोक्ष होता है । तिस ढंगसे अन्य प्रकार व्यवस्था माननेपर स्त्री, नपुंसक, पशु पक्षी आदिका भी निर्वाण होना कहनेवाले श्वेताम्बर, वैष्णव आदि वादियोंके यहां तो सदागमद्वारा व्याघात दोष उपस्थित होगा, तथा युक्तियोंसे भी बाधा प्राप्त होगी। सर्वज्ञोक्त आगमोंमें द्रव्य पुरुषकाही मोक्ष जाना लिखा है । मनुष्यही क्षपक श्रेणीपर चढ सकता है, स्त्रियोंके जब विशेष ऋद्धियांही नहीं हो पाती हैं । तो तद्भव