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तत्त्वार्थश्लोक वार्तिकालंकारे
दिशा विदिशाको नहीं जाता हुआ उसी स्थलपर अत्यन्त विनाशको प्राप्त हो जाता है । उसी प्रकार कारणवश स्कन्धकी सन्तान प्रतिसन्तान रूपसे चला आ रहा यह विज्ञान स्कन्धस्वरूप जीव पदार्थ बिचारा क्लेशका क्षय हो जानेपर किसी दिशाविदिशाको नहीं जाकर जहां था वहां का वहीं प्रलयको प्राप्त हो जाता है । यही मोक्ष है | ग्रन्थकार कहते हैं कि यह तो न कहना क्योंकि आपका दिया हुआ दृष्टान्त स्वयं साध्य कोटि में पडा हुआ है । प्रदीप में भी अन्वय सन्तान नहीं रहकर निरन्वय नष्ट हो जानेकी प्रतीति नहीं हो रही है । दीपक बुझ जानेपर अन्धकार या काजल स्वरूप पुद्गल पर्याय हो करके उस दीपकका उत्पाद हो रहा है । और पुद्गलकी पर्याय हो रहे दीपक रूपसे उसका नाश हो गया है। तथा पुद्गल जातिस्वरूपसे ध्रुवता है । " न सर्वथा नित्य मुदेत्यपैति न च क्रियाकारक मत्रयुक्तं नैवासतो जन्मसतो न नाशो दीपस्तमः पुद्गलभावतोऽस्ति ( श्री समन्तभद्र स्वामी ) जब दृष्टान्त दिये जा रहे दीपककाही अत्यन्त विनाश नहीं हुआ है । तद्वत आत्माका भी मोक्ष अवस्था में अभाव नहीं होता है । प्रत्येक द्रव्यमें अनादिसे अनन्तकालतक उत्पाद, व्यय, ध्रौव्य स्वरूप परिणाम होते रहते हैं । एक बात यह भी है कि जैसे सांकल, बेडी, रस्सी, पींजरा आदिका वियोग हो जानेपर देवदत्त, कैदी, बैल, पक्षी आदिका अवस्थान रहता है । यानी उनका सद्भावना बना रहता है । यों देखा जाता है, अतः इसी प्रकार आत्मा के कर्मबन्धका क्षय हो जानेपर आत्मा के सद्भावको छिपा नहीं सकते है । अर्थात् आत्माका समूलचूल मटियामेंट नहीं हो जाता है । यों मोक्ष अवस्थामें सभी प्रकारोंसे अभाव हो जाना सिद्ध नहीं हो सकता है ।
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यत्रैव कर्मविप्रमोक्षस्तत्रैवावस्थानमिति चेन्न साध्यत्वात् यो यत्र विप्रमुक्तः सतत्रैवावतिष्ठत इति । सिद्धं देशान्तरगतिदर्शनात् निगलादिविनिर्मुक्तस्य । गतिकारणसद्भावाद्देशान्तरगतिदर्शनमिति चेत्, निःशेषकर्मबन्धन विप्रमुक्तस्यापि गतिनिमितस्योर्ध्वव्रज्यास्वभावस्य भावात् देशान्तराग तिरस्तु । तदेवम् ।
यहां कोई अक्रियावादी दार्शनिक कह रहा है कि जहां ही स्थलपर कर्मोंका विप्रमोक्ष हुआ है। वहां ही स्थानपर आत्माकी अवस्थिति हो जायगी क्योंकि गतिके कारण नोई कर्म नहीं रहे हैं । ग्रन्थकार कहते हैं कि यह तो न कहना क्योंकि तुम्हारा आपादन प्रमाण निर्णीत नहीं हो सका है । जो जहां कोई छूटता है, वह वहां ही
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