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तत्त्वार्थ श्लोक वार्तिकालंकारे
यहां कोई आक्षेप कर रहा है कि मुक्तजीव अमूर्त हैं । ऐसी दशामें उनका लम्बाई चौडाईवाला या रूप, रसवाला कोई आकार नहीं होनेसे मुक्तोंका अभाव हो जावेगा । जैसे कि कोई आकार न होनेसे जगत् में अश्वविषाण नहीं हैं । ग्रन्थकार कहते हैं कि यह तो ठीक नहीं हैं। क्योंकि अव्यवहित व्यतीत हो चुके शरीर के आकारका अनुकूल विधान करनेवाली मुक्त आत्माये हैं । जिस सांचेके गर्भ मेंसे मौम निकाल दिया गया है, उस आकाशका वही आकार पीछे बना रहता है । " मौम गयो गलि भूष मझार रह्यो त व्योमतदाकृतिधारी " उसी प्रकार मुक्तके आत्माकी लम्बाई, चौडाई, मोटाई, स्वरूप आकृति तो पूर्वशरीर अनुसार है । " किं चूणा चरमदेहदों सिद्धो स्वास, उश्वासके लेनेसे जीवित शरीर कुछ बढ जाता है। मुक्त जीवके स्वास उस्वासकों निमित्त पाकर आत्म प्रदेशोंका बढ जाना नहीं है । तथा मुख प्रदेश, उदराशय, पोली नसें इनके भर जानेसे आत्मप्रदेश कुछ ठुस जाते हैं । यहां कोई कटाक्ष कर रहा है कि आत्मा के प्रदेश गृहीत शरीर अनुसार घटते बढते रहते हैं । मुक्तजीवों के शरीर तो नहीं है । ऐसी दशामें उस शरीरका अभाव हो जानेसे मुक्त आत्माओंके लोक बराबर फैल जानेका प्रसंग आता है । जब कि आप जैनोंने एक जीवको प्रदेश लोकाकाशके समान माना हैं | “ असंख्येयाः प्रदेशा धर्माधर्मैकजीवानाम् " ग्रन्थकार कहते हैं कि यह तो नहीं कहना क्योंकि कारणका अभाव है। यहां, कोई प्रश्न उठाता है कि संसारी जीवके किस कारणसे संकोच विस्तार हुआ करते हैं ? जो कि कारण मुक्तोंके नहीं हैं, बताओ ? यों पूछने पर तो आचार्य कह रहे हैं कि नामकर्म के सम्बन्ध से संसारी जीवका संकोच विस्तार धर्मोंसे सहितपना है । जैसे कि प्रदीपका प्रकाश संकुचता फैलता है । अर्थात् प्रदीपका लम्बा, चौडा प्रकाश नियत परिमाणको ले रहा सन्ता भोलुआ, मौनि, डेरा आदि द्रव्योंसे रुक जानेपर छोटा बडा हो जाता है । उसी प्रकार नामकर्म के सम्बन्धसे जीवका परिमाण छोटा बडा शरीरावच्छिन्न होकर परिमित है । नामकर्मका अभाव हो जाने से मुक्तजीवके संकोच विस्तार कुछ हो नहीं पाता है । अन्तिमशरीर अनुसार कुछ घटकर उतनाही बना रहता है ।
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नात्मनः संहरण विसर्पणवत्वे साध्ये प्रदीपो दृष्टान्तः श्रेयान् मूर्ति मद्वैधर्म्यादिति चेन्न, उभयलक्षणप्राप्तत्वात् । दृष्टान्तस्य हि लक्षणं साध्यधर्माधिकरणत्वं साधनधर्माधिकरणत्वं च । तत्र संहरण विसर्पणधर्मकत्वस्य साध्यस्याधिष्ठानपरिमाणानुविधायित्वस्य