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दशमोऽध्यायः
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ननु महापरिमाणानामल्पीयस्याधारे मोक्षक्षेत्रे परस्परोपरोध इति चेन्न, अव. गाहशक्तियोगात् नानाप्रदीपमणिप्रकाशादिवत् तत एव जन्ममरणद्वन्द्वोपनिपात व्यावाधाविरहात् परमसुखिनः । तत्सुखस्य नास्तुपमानमाकाशपरिमाणवत् ।
पुन: कोई शंका उठाता हैं कि सिद्ध परमेष्ठी अनन्तानन्त हैं । महापरिमाणवाले सिद्धोंका अत्यन्त छोटे पैंतालीस लाख योजन प्रमाण आधारभूत सिद्ध क्षेत्रमें अवगाह माना जायगा। तो परस्पर अवरोध यानी रुक जाना, धक्का पेल होना, घिचपिच संकीर्ण होना आ रहे अन्य सिद्धोंको स्थान न मिल सकना, हो जायगा। ग्रन्थकार कहते हैं कि यह तो न कहना क्योंकि अमूर्त सिद्धोंमें अवगाह शक्तिका योग हो रहा है। जैसे कि अनेक दीपक, मणि, टौर्च, अग्नि आदिके प्रकाश, प्रताप, उद्योत, उष्णता आदिक एक ही घर या डेरे में उपरोध किये विना समा जाते हैं। सिद्ध भगवान् तो अमूर्त हैं, बहुतसे मूर्त बादर पुद्गलोंका भी परस्पर एक क्षेत्रमें अवगाह हो जाता है । दूध में थोडा बूरा समा जाता है, ऊंटनीके दूधमें मधु वहीं समा जाता है, ऊपर आकाशमें वायु, बिजली, मेघ, धुआं सुगन्ध, दुर्गन्ध, स्कन्ध आदिक अनेक पदार्थ भरे पडे है। यों मूर्त स्थूलोंकी जब यह दशा है। तो सूक्ष्म पुद्गल या अमूर्त पदार्थ धर्म, अधर्म आदि तो बडी निराकुलतासे एक स्थान पर ठहर जा सकते हैं । एक सिद्ध भगवान्के स्थानपर अनन्तानन्त सिद्ध विराजमान हैं। क्योंकि वे अवगाहनशक्तिवाले अमूर्त परमात्मा पदार्थ है । तिस ही कारणसे जन्म लेना, मरना, आकुलता, झगडे, टन्टोंका ऊपर पडना, बहुत बाधायें होना, इनका विरह हो जानेसे वे मुक्त जीव परमसुखी हैं। आयुष्यकर्मके अभावसे अवगाहगुण और वेदनीय कर्मके अभावसे अव्याबाधगुण तथा नामकर्मका ध्वन्स कर देनेसे उनके अमर्तत्व गण प्रकट हो गये हैं। विशेषरूपेण सभी आवाधाओंके अभावको निमित्त पाकर हुआ सिद्धोंके अनन्त समीचीन सुख है। सिद्धोंके उस परम सुखका दृष्टान्त देने योग्य कोई उपमान नहीं है। जैसे कि आकाश परिमाणकी उपमा रखनेवाला कोई नहीं है।
- मुक्तानामनाकारत्वादभाव इति चेन्नातीतानन्तर शरीराकारानुविधायित्वात् गतसिक्ककभषागर्भवत् । मुक्तानामशरीरत्वे तदभावाद्विसर्पणप्रसंग इति चेन्न, कारणा. भावात् । कुतः कारणात् संहरणविसर्पणे संसारिणः स्यातामिति चेत्, नामकर्मसंबधात् संहरण विसर्पणधर्मत्वं प्रदीपप्रकाशवत् ।