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दशमोऽध्यायः
निरुक्ति कर कर्मोके छूट जानेको मोक्ष कहा जा चुका है । पुनः इनका विशेष वर्णन तथा उन कर्मोंकी सत्ता, बन्ध, उदय, उदीरणा आदिकी व्यवस्थाका ग्रहण करना या इस गुणस्थानमें किन प्रकृतियोंका बन्ध है ? यों बन्ध, अबन्ध, बन्धव्युच्छित्ति, उदय, अनुदय, उदयव्युच्छित्ति, सत्ता, असत्ता, सत्ताव्युच्छित्ति, उदीरणा, अनुदीरणा, उदीरणा. व्युच्छित्ति इत्यादि करके लिये गये विभागको गुणस्थानोंकी अपेक्षा रखकर आर्ष आम्नाय अनुसार चले आ रहे शास्त्रसे लगा लेना चाहिये। भावार्थ-राजवात्तिक, गोम्मटसार आदि ग्रन्थोंसे बन्ध, उदय, सत्ता आदिकी गुणस्थानोंमें व्यवस्थाको समझ लिया जाय, यहां संक्षेपसे कथन करना मात्र अभीष्ट है । मुद्रित पुस्तकमें “ बन्धहेत्वभावनिर्जराभ्यां कृत्स्नकर्मविप्रमोक्षो मोक्षः " इस सूत्रकी टीका छपी नहीं है। उत्तर प्रांतकी लिखित पुस्तकमें जो कुछ शुद्ध अशुद्ध, टीका पाई गई उसका यथायोग्य संशोधन कर देशभाषा कर दी गई है । पुनः मूडबिद्रीसे ताडपत्रपर लिखी हुई प्राचीन प्रतिके लेखको मंगाया गया वह इस प्रकार है ।
अथ परममोक्षः कुतः स्यादिति प्रतिपादनार्थमाह.-" बन्धहेत्वभावनिर्जराभ्यां कृत्स्नकर्मविप्रमोक्षो मोक्षः । कोऽय बन्धहेतुः ? को वा तदभावः ? इत्याह- .
आत्रवाभिहितो बन्धहेतु पूर्वमनेकथा तस्याभावः परो ज्ञेयः संवरः सर्वकर्मणां ।। १॥
कासौ निर्जरेत्याह; - निर्जरा च परायोग-केवल्यन्तक्षणोद्भवा, ताभ्यां मोक्षस्तयोरन्यतरापायेऽस्य नोदयः ॥ २ ॥ न तावत्संवरापाये कृत्स्नकर्मक्षयः क्वचित् अपरापरकर्मोपढौकनात्स्वनिमित्ततः ॥ ३ ॥ नापि तन्निर्जरापाये पूर्वकर्मव्यवस्थितेः नानुपक्रमसाध्यायां निर्जरायां विरोधदः ॥ ४ ॥ तपोतिशयतः सम्यग्दर्शनज्ञानयोगिनः न भावसंवरोऽन्योतो मार्गो रत्नत्रयात्मकः ।। ५॥