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दशमोऽध्यायः
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प्रत्याख्यानावरग क्रोध, मान माया, लोभ इन आठों कषायोंको मुनिके जिनदृष्ट या स्वसंविदित प्रयत्न द्वारा नष्ट कर दिया जाता है । तीसरे भाग में नपुंसकवेद कर्मका चौथे भागमें स्त्रीवेद कर्मका छेद किया जाता है । विनाश करना रचा जाता है, पांचवें भाग हास्य, रति, अरति, शोक, भय, जुगुप्सा इन छहों नोकषायोंका प्रध्वंस कर दिया जाता है । छठे भाग में पुंवेदका अत्यन्ताभाव रचा जाता है। सातवें भागमें संज्वलन क्रोध का विध्वंस आत्मसामर्थ्य द्वारा बनाया जाता है । आठवें भागमें संज्वलन मानके विनाशकी बढिया रचना की जाती है । नवमें गुणस्थानके नववें भाग में संज्वलन माया कर्मका क्षय कर दिया जाता है । सूक्ष्मलोभसंज्वलन कर्मको यह पुरुषार्थी जीव दशमें गुणस्थानके प्रकृष्ट अन्तसमय में विनाशको प्राप्त कर देता है । क्षपकश्रेणीवाला यतिवर्य इससे परें बार हमें गुणस्थानके अन्तिम समयके पूर्व निकटवर्ती उपान्त समय में निद्रा और प्रचला दो कर्मप्रकृतियोंको नष्ट कर डालता है । उस बारहमें गुणस्थान में क्षीणकषाय परमपुरुषार्थी जीव ज्ञानावरणकी पांचों कर्मप्रकृतियां और दर्शनावरणकी चक्षुर्दर्शनावरण, अचक्षुर्दर्शनावरण, अवधिदर्शनावरण और केवलदर्शनावरण इन चारों प्रकृतियोंका तथा पांच अन्तरायकर्मकी प्रकृतियोंका बुद्धिपूर्वक यत्न द्वारा क्षय कर डालता है । उसी क्षण तेरहवें गुणस्थानके आदिमें मुमुक्षु जीव अनन्तानन्त ज्ञान, दर्शन, सुख, वीर्य इस अनन्तचतुष्टयकों प्राप्त कर अपर निःश्रेयस अवस्थाको प्राप्त हो जाता है । शुभ पुरुषार्थ कभी व्यर्थ नहीं जाता है । पुरुषार्थी लभते मोक्षम् ।
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सयोगकेवलिनः कस्याश्चिदपि प्रकृतेः क्षयो नास्ति । चतुर्दशगुणस्थानस्य द्विरमसमये द्वासप्ततिप्रकृतीनां क्षयो भवति । कास्ताः प्रकृतय ? । अन्यतर हि वेदनीय देवर्गान, औदारिकवैक्रियिकाहार कतै जसकार्मणशरीर पंचकं ॥ ७ ॥ तद्बंन्धनपंचकं ॥ १२ ॥ तत्संघात पंचकं ।। ११ ।। तत्संस्थानषट्कं ।। २३ ।। औदारिकवैक्रियिकाहारक शरीरांगोपांगत्रयं ॥ २६ ॥ संहननषट्कं ॥ ३२ ॥ प्रशस्ता प्रशस्तवर्णपं वक्रं ।। ३७ ।। सुरभिरसुरभिगंधद्वयं ।। ३९ ।। प्रशस्ता प्रशस्तरसपञ्चकं । ४४ ।। स्पर्शाष्टकं । ५२ ।। देवगति प्रायोग्यानुपू ।। ५३ ।। अगुरुलघुत्व ॥ ५४ ॥ उपघात ।। ५५ ।। परघात ॥ ५६ ॥ उच्छ्वास ।। ५७ ।। प्रशस्ता प्रशस्त विहायोगतिद्वयं । ५९ ।। अपर्याप्ति ।। ६० ।। प्रत्येकशरीर ।। ६१ ।। स्थिरत्वमस्थिरत्वं ॥ ६३ ॥ शुभत्वमशुभत्वं ॥ ६५ ॥ दुर्भगत्वं ॥ ६६ ॥ सुस्वरत्व, दुःस्वरत्व ॥ ६८ ।। अनादेयं च ॥ ६९ ।। अयशस्कीर्तिः ॥७०॥ निर्माण ॥ ७१ ॥