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तत्त्वार्थश्लोकवातिकालंकारे
नरकगति, तिर्यग्गति, एकेन्द्रिय जाति, द्वीन्द्रियजाति, त्रीन्द्रियजाति, चतुरिन्द्रियजाति, नरकगतिप्रायोग्यानुपूर्व्य, तिर्यग्गतिप्रायोग्यानु पूर्व्य आतपोद्योत स्थावर सूक्ष्म, साधारणाभिधानकानां षोडशानां कर्मप्रकृतिनां प्रक्षयो भवति । द्वितीयभागमध्ये कषायाष्टकं नष्टं विधीयते, तृतीयभागे नपुंसकवेदच्छेदः क्रियते । चतुर्थभागे स्त्रीवेदविनाशः सज्यते,पञ्चमे. भागे नोकषाय षट्कं प्रध्वन्स्यते, षष्ठे भागे पुंवेदानां वेदाभावो रच्यते, सप्तमे भागे संज्वलनक्रोधविध्वन्स: कल्प्यते । अष्टमे भागे संज्वलनमानविनाशः प्रणीयते, नवमे भागे संज्वलनमायाक्षयः क्रियते । लोभसंज्वलनं दशमगणस्थानप्रान्ते विनाशं गच्छति । निद्राप्रचले द्वादशगुणस्थानस्योपांत्यसमये विनश्यते पंच ज्ञानावरणचक्षुरचक्षुरवविकेवल दर्शनावरणचतुष्टयपञ्चान्तरायाणां तदन्त्यसमये क्षयो भवति ।
अर्थात् संसारी जीव जीनासे उतरने, चढने, पानीमें तैरने, साइकिल चलाने, दण्ड बैठक करने आदि प्रयत्नोंकोही पुरुषार्थ समझ रहा है। सामायिक, ध्यान आदिमें किये जा रहे बुद्धिपूर्वक पुरुषार्थोंका कभी परिचय नहीं हो पाया है। " न हि बन्ध्या विजानाति गुर्वी प्रसववेदनां " बन्ध्या स्त्री पुत्रप्रसवकी भारी सुखदुःख वेदनाका अनुभव नहीं कर पाती है। शास्त्रीय, आचार्य परीक्षा की उत्तीर्णताप्रयोजनको साधनेवाले शास्त्ररहस्य चिन्तनके पुरुषार्थोंका संवेदन एक लठ्ठ किसान क्या कर सकता है ? । अनादि कालीन मिथ्यादृष्टि जीवको सम्यग्दर्शनकी प्राप्तिमें महान् अत्यधिक प्रयत्न करना पडता है । क्षायिक सम्यग्दर्शनकी प्राप्ति हो जाना तो सामग्री मिलनेपर घोर पुरुषार्थका कार्य है। चौथे, पांचवें, छठे या सातवें गणस्थानोंके मध्यमें से किसी भी एक गुणस्थानमें अनन्तानुबन्धी कषायोंके क्रोध, मान, माया, लोभ चारों पौद्गलिक कर्मोंका तथा मिथ्यात्व, सम्यमिथात्व, और सम्यक्त्व इन तीनों प्रकृतियोंका यत्न द्वारा क्षय कर दिया जाता है। इस घोर प्रयत्नसाध्य कार्यमें श्रान्त हो चुके आत्माको दो बार विश्राम लेना पडता है। ऐसा गोम्मटसारकी संस्कृत टीकामें निरूपित है। ग्रन्थकार कह रहे हैं कि अनिवृत्ति सांपराय नामक गुणस्थानके नौ भाग किये जाते हैं। उनमेंसे पहिले भागमें निद्रानिद्रा, प्रचला प्रचला, स्त्यानगृद्धि, नरकगति, तिर्यग्गति, ए केन्द्रियजाति, द्विइन्द्रियजाति, त्रिइन्द्रियजाति, चतुरिन्द्रियजाति, नरकगतिप्रायोग्यानुपूर्व्य, तिर्यग्गतिप्रायोग्यानुपूर्व्य, आतप, उद्योत, स्थावर, सूक्ष्म, साधारण, नामक सोलह कर्म प्रकृतियोंका प्रक्षय हो जाता है। नवमें गुणस्थानके द्वितीय भागके मध्यमें अप्रत्याख्यानावरण क्रोध, मान, माया, लोभ और