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तत्त्वार्थश्लोकवार्तिकालंकारे
कोई आक्षेप करता है कि नौमे अध्यायमें संवर तत्त्वका निरूपण कर चुकनेपर उसके पश्चात् दशमें अध्यायमें अगिले निर्जरा पदार्थ काही निर्देश करना योग्य है । अवसर संगति अनुसार निरूपण योग्यताको धार रहा निर्जरा तत्त्वही प्रस्ताव प्राप्त है । अतः दशमें अध्यायके आदिमें अब उस निर्जराका प्ररूपण करना ही समुचित है, किन्तु फिर केवलज्ञानकी उत्पत्तिका प्रतिपादन करना सूत्रकारको युक्त नहीं है । यहां तक कोई प्रतिवादी कह रहा है । ग्रन्थकार कहते हैं कि यह उसका कहना प्रशंसनीय नहीं है, अंसत्यार्थ है । कारण दशवें अध्यायमें मोक्षतत्त्वका कथन कर देनेसेही निर्जरा स्वरूपकी भले प्रकार प्रतीति हो जाती है । एकदेश होना निर्जरा है, और पूर्णरूपेण कर्मों का क्षय हो जाना मोक्ष है । जैसे कि कोई भी अवयवी प्रासादकी रचना उसके भींत, खम्भ, छत आदि अवयवोंकी रचनापूर्वक होती है । उसी प्रकार निर्जराकी प्रतीति हो जानेमेही मोक्षका प्रतिपादन युक्तिपूर्ण सिद्ध हो जाता है । इसपर यदि आक्षेप कर्ता यों कहे कि तब तो इस अध्यायकी आदिमें मोक्षके प्रतिपादक सूत्रका ही प्रारम्भ करना चाहिये, केवलज्ञानको आदिमें क्यों कह बैठे ? इस प्रकार विक्षेप उठानेपर तो ग्रन्थकार करके इस अवसर पर समाधानार्थ अग्रिम वार्तिकें कही जा रही हैं । उन वार्त्तिकों का अर्थ यह है कि अब दशमें अध्यायके प्रारम्भ में यह कहा जाता है कि मोहनीय कर्मका क्षय हो जानेसे तथा ज्ञानावरण आदि कर्मोंका क्षय हो जानेसे आत्माका केवल (ज्ञान) प्रकट हो जाता है । जिस कारणसे कि केवलज्ञानका प्रकट हो जानाही जीवन्मोक्ष है । अतः मोक्षका प्रस्ताव हो जानेसे भी सूत्रकार महाराज नियमसे केवलज्ञानको कह चुके हैं । ततः उस केवलज्ञानकी प्रधानताको सिद्ध करनेके लिये यह रचना की गई है । केवलज्ञानीका मोक्ष हो जाना रोकनेपर भी नहीं रुक पाता है । अतः केवलज्ञानकी उत्पत्ति प्रधान मानी गई है। दूसरी बात यह भी है कि किसी किसी वादीके यहां मोक्ष अवस्था में ज्ञान नहीं माना गया है । वैशेषिकोंने मोक्ष अवस्था में बुद्धि आदि नौ गुणोंका ध्वंस हो जाना स्वीकार किया है । अतः मोक्षप्राप्त जीवके ज्ञानरहित स्वरूप हो जानेका खण्डन करनेके लिये केवलज्ञानका आद्य में प्रतिपादन करना आवश्यक पड गया है । ।। १-२ ।। का० यहां सूत्र में केवल पद दिया गया है। उसका केवलज्ञान अर्थ करना उपलक्षण है । साथही अनन्तसुख, दर्शन, वीर्य आदिका उपज जाना भी अभिप्रेत हो रहा है । केवल का अर्थ अन्योंसे रीता होता है । जैसे कि कोई पण्डित केवल वैयाकरण है,
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