________________
नवमोध्यायः
३७५)
तत ऊर्ध्वमकषाय थानानि निर्ग्रन्थः प्रतिपद्यते । सोध्यसंख्येयस्यानानि गत्वा व्युच्छिद्यते, तत ऊर्ध्वमेकं स्थानं गत्वा स्नातको निर्वाणं प्राप्नोति । तदा संयमलब्धिरनन्तगुणा भवति, एवं नवमाध्यायसूत्रितां संवरनिर्जरासिद्धिमुपसंहरन्नाह, -
सिध्यत्येवमुदीरितक्रमवशाद्गुप्त्यादिभिः संवरो । विभ्राणैः प्रतिपक्षतामुरुबलैः कर्मास्त्रवाणां यथा ॥ तद्वत्सत्तपसो दिन विविधा कारेण नुन्निर्जरा । नानात्मीयविशुद्धिवृद्धिवशतो धीरस्य निःसंशयम् ॥
इति तत्त्वार्थश्लोकवात्र्तिकालंकारे नवमस्याध्यायस्य द्वितीयमान्हिकं ।
इसका अर्थ इस प्रकार है कि संयम श्रुत, प्रतिसेवना, तीर्थ, लिंग, लेश्या, उपपाद और स्थान इन विकल्पोंमें या विकल्पों करके पुलाक आदिको साध लेना चाहियें । इस सूत्रोक्त मन्तव्यमें किसीको शंका उपजती है कि कोई व्याकरणका सप्तमी या तृतीया विभक्तिके अर्थ में तस् प्रत्ययको करनेवाला लक्षणसूत्र नहीं है । अतः इस सूत्रमें विकल्पतः यों तस् प्रत्ययान्त निर्देश नहीं करना चाहिये । ग्रन्थकार कहते हैं कि यह तो नहीं कहना क्योंकि व्याकरणमें तस् प्रत्यय के प्रकरणपर " अन्यतोपि " ऐसा वचन कहा गया है । यानो पंचमी विभक्तिके अतिरिक्त अन्य विभक्तियोंके अर्थ में भी तस् प्रत्यय हो जाता है । इस कारण यहां सप्तम्यर्थ या तृतीयार्थ अनुसार " विकल्पतः " पदकी सिद्धि हो जाती है । पुनः शंकाकार कहता है कि वह " अन्यतोऽपि " जो कहा गया है । उसका व्याख्यान यह है कि भवत् युष्मत्, आदिका योग हो जानेंपर अन्य विभक्तियोंसे भी वह तस् प्रत्यय कर दिया जाता है । आचार्य कहते हैं कि यह भी तो नहीं कहना क्योंकि भवत् आदिका योग नहीं भी हो जानेपर अन्य स्थानोंमें भी तस् प्रत्यय हुआ देखा जाता है । जैसे कि प्रसिद्ध ग्रन्थ में ऐसा प्रयोग है तथा संज्ञाधारनेमें या अर्थ करके, शद्ब करके अथवा संज्ञा करके जो है । यहां भवत् आदिका योग नहीं है, फिर भी तस् प्रत्यय हो रहा देखा जाता हैं । अब सूत्रोक्त प्रतिसेवना पदमें शंका उठाई जा सकती है कि " प्रतिसेवना शद्वम दन्त्य सकारके स्थानपर मूर्धन्य षकार होना चाहिये । जैसे कि प्रतिषेध परीषह आदि शद्व हैं। इसके समाधानार्थ ग्रन्थकार कहते हैं कि " प्रतिसेवना इस पद में मूर्धन्य कार हो जानेका अभाव है कि अन्य क्रियाका मध्य में संबंध हो रहा है, जैसे कि जिस
कि अर्थ में, शद्वम
नहीं है वह मध्यम
"
"