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तत्त्वार्थश्लोकवातिकालंकारे
रणोंकों रख कर बड़े परिग्रही हो रहे श्वेताम्बरोंके यहां जैसे बहुतसे प्रतिलेखन रखना, परवारना, सुखाना, आदिक और बहुतसे परिग्रहकी पोट लादना रखना आदिक दोष हैं । वैसे दिगम्बर मुनियोंके नहीं है इत्यादिक टीकामें बहुत लिखा है । अन्यत्र भी ग्रन्थोंमें वस्त्रके दोष दिखलाते हुये यों कहा गया है कि वस्त्रोंके मलिन हो जानेपर उनको पखारना पडेगा । धोनेके लिये जल लाना, पात्र लाना, आदि आरम्भ किया जायगा, ऐसा करनेसे भला संयम कहांसे पल सकता है ? वस्त्रके धोनेपर इन्द्रियसंयम और प्राणसंयम दोनों नहीं पलते हैं । और वस्त्रके नष्ट हो जानेपर साधुका चित्त व्याकुल हो जायगा । इसके अनन्तर महान् पूज्य पुरुषों को भी अन्य जनोंसे वस्त्रकी प्रार्थना करनी होगी । मात्र कौपीनके भीं दूसरों द्वारा चुराये जानेपर शीघ्र क्रोध उपज बैठता है ! तिस कारण अनेक दोषोंकी खानि हो रहे वस्त्रका मुनिको ग्रहण करना उचित नहीं है । शांतिकी उपासना करनेवाले मुनियोंका वस्त्र तो दिशामण्डल ही है । वह दिशारूपी वस्त्र नित्य है, कभी फटता नहीं है। शुद्ध है, कभी मैला नहीं होता है, राग परिणतिको हरनेवाला है । और भी ग्रंथोंमें इस विषयपर कहा गया है कि परनिमित्तजन्य विकारोंमें विद्वान् पुरुषोंको द्वेष उपजता है हां, अविकार यानी स्वाभा विक परिणति के अनुकूल प्रवर्तनेमें किसीका कोई द्वेष नहीं होता है । तिस कारण स्वभावसे उत्पन्न हुये नग्नपनेमें भला क्या द्वेष या पापका संसर्ग हो सकता है ? परिग्रहोंका सर्वथा त्याग कर देनेसे मुनियोंका आकिञ्चन्य धर्म पलता है और अहिंसा भी सती है । उन संयमियोंकी निष्किञ्चनता और अहिंसा धर्म कैसे होंगे जो साधु छाल और चमडा तथा वस्त्रोंका संग यानी परिग्रह करनेके लिये इच्छा रखते हैं । अर्थात् वकला, चमडा, कपडा इन परिग्रहोंके चाहनेवाले पुरुष संयमी नहीं हैं । निष्परिग्रहत्व और अहिंसाको नहीं धारते हैं । यों आशाधरजीने टीकामें साधुओंके वस्त्रादिरहितपर्नेको पुष्ट किया है। श्री वीर भगवान् या श्री कुन्दकुन्द स्वामीके आम्नाय अनुसार मुनियोंके वस्त्रादि परिग्रहोंका रखना निषिद्ध है । स्वयं ग्रन्थकार श्री विद्यानन्द स्वामी दशमें अध्याय के अन्तिम सूत्रका व्याख्यान करते हुये लिखेंगे कि --
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पुल्लिगेनैव तु साक्षाद्रव्यतोन्या तथा गमव्याघाताद्युक्तिबाधाच्च स्त्र्यादिनिर्वाणवादिनां । साक्षान्निर्ग्रन्थलिगेन पारंपर्यात्ततोन्यतः । साक्षात्सग्रन्थगेन सिद्धौ निर्ग्रन्थता वृथा ।। १३ ।।