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नवमोध्यायः
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वड्ढतो । संखेज्जेखलु उड्ढे पदणामं होदि सुदणाणं " "एय पदादो उवरि एगेगे णक्ख रेण वड्ढतो, संखेज्ज सहस्सपदे उड्ढे संघाद णामसुदं " यों एक एक वर्णकी वृद्धि करते हुये पद नामक श्रुतज्ञान और संघात आदि श्रुतज्ञानोंका उपजना समझाया है । वस्तु श्रुतज्ञानमें भी “ एक्केक्क वण्ण उड्ढी कमेण सव्वत्य णायव्वा " यों कहकर सर्वत्र एक एक अक्षर नामक ज्ञानकी वृद्धिके क्रम अनुसार अगले श्रुतज्ञानोंका होना अभीष्ट किया है । अतः दश, चौदह, आदि वस्तु नामक श्रुतज्ञानोंके पिण्डरूप उत्पाद पूर्व, आग्रायणी पूर्व, आदि पूर्वोमें अक्षरश्रुत अनुसार क्रमसे ज्ञानवृद्धि होती है । पूर्ण श्रुतज्ञानके एक कम एक द्विप्रमाण (अठारह आदि वीस अक्षरकी संख्या (१८४४६७४४०७३७०९५५१६१५) अपुनरुक्त अक्षर हैं । यों एक भी अक्षर श्रुतसे नहीं टूट रहे दश पूर्वोका ज्ञान होता है । वे दशपूर्व उन अक्षरोंसे न्यून नहीं होने चाहिये इस बातका ख्याल रक्खो । तथा वे कषायकुशील और निर्ग्रन्थ इस नामके धारी साधुवर्य तो तिस ही प्रकार सर्वदा चौदह पूर्व नामक श्रुतज्ञानको उत्कृष्टतया धारते हैं ।
जघन्यतया पुलाकः आचारं वस्तुस्वरूपनिरूपकं श्रुतं धरति । वकुशकुशीलनिर्ग्रन्याश्च प्रवचनमातृकास्वरूपनिरूपकं श्रुतं निकृष्टत्वेन धरंति । प्रवचनमातृका इति कोर्थः ।
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जघन्य रूप से पुलाक मुनि आचारवस्तुके स्वरूपका निरूपण करनेवाले श्रुतज्ञानको धरता है । तथा वकुश, कुशील और निर्ग्रन्थ मुनि तो आठ प्रवचनमातृकाके स्वरूपका प्रतिपादन करनेवाले शास्त्रज्ञानको जघन्यपने करके धारते हैं । प्रवचन मातृका " इसका अर्थ क्या है ? इसके लिये ग्रंथकार अग्रिम वार्त्तिकको कह रहे हैं । पंचसमितयस्तिस्त्रो गुप्तयश्चेति मातरः ।
प्रवचनमातरोष्टौ कथ्यते मुनिभिः परैः ॥ ५ ॥
ईर्यासमिति आदि पांच समितियां और मनोगुप्ति आदि तीन गुप्तियां ये मातायें हैं । जैसे माता पुत्रकी जननी है, संतानकी रक्षा करती है । उसी प्रकार ये मोक्षकी जननी और रक्षिणी हैं। उत्कृष्ट मुनिवरों करके ये ही आठ प्रवचन मातायें कही जाती हैं । अर्थात्--न्यारे न्यारे प्रकारका निर्वचन कर देनपर देव, शास्त्र, गुरु, तीनोंको प्रवचन कह सकते है | श्रुतज्ञानके भेद प्रभेदों में कोई ऐसा प्रकरण है जो कि मुख्यरूपेण