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नबमोध्यायः
आभ्यन्तर विराधने सति स च सेवना प्रतिसेवना दोषविधानमित्यर्थः । ततश्च संयमादिभिरनुयोगैः साध्याः व्याख्येयाः । संयमश्च श्रुतश्च प्रतिसेवना च तीथं च लिंग च लेश्याश्चोपपादश्च स्थानानि च संयमश्रुतप्रतिसेवनातीर्थ लिंगलेश्योपपादस्थानानि तेषां विकल्पाः भेदाः संयमश्रुतप्रतिसेवनातीलिंगलेश्योपपावस्थानविकल्पाः तेम्पस्ततः पुलाकादय इति पंचभेदाः महर्षयः । संघमादिभिः अष्टभिः भेदैरन्योन्य भेदेन साध्या व्यवस्था पनीया इत्यर्थः । तथाहि;
अभ्यन्तरके नियमोंमे विराधना (बिगाड) होते सन्ते जो सेवना है। वह प्रतिसेवना कही जाती है । इसका अर्थ दोषोंका विधान है। तिस कारण संयम आदिक आठ अनुयोगों करके पुलाक आदिक मुनि साध लिये जाय। अर्थात् इनकी विशेष प्रतिपत्ति करनेके लिये व्याख्या कर ली जाय, इस सूत्र में पहले द्वन्द्व समास किया जाय पुनः षष्ठी तत्पुरुष करते हुये पञ्चम्यन्त तस् प्रत्यय कर लेना चाहिये । संयम और श्रुत तथा प्रतिसेवना एवं तीर्थ तथा लिंग और लेश्या तथा उपपाद एवं स्थान यों द्वन्द्ववृत्ति करनेपर " संयमश्रुतप्रतिसेवना तीर्थलिंगलेश्योपपादस्थानानि " ऐसा पद बन जाता है । उनके जो विकल्प यानी भेद प्रभेद हैं। सो " संयमश्रुतप्रतिसेवनातीर्थलिंगलेश्योपपादस्थानविकल्प' हैं। उनसे इस अर्थमें ततः यानी " संयमादिविकल्पतः " यह पद बन जावेगा। यों उन संयम आदि आठ भेदों करके परस्पर भेदके साथ पुलाक आदिक पांच भेदवाले महान् ऋषिराज साधने योग्य हैं । यानी इनकी व्यवस्था कर लेनी चाहिये। इसका अर्थ यह हुआ कि जैसे किसी पदार्थका सत्, संख्या, क्षेत्र, आदिके अनुसार व्याख्यान किया जाता है, दूसरे किसी तत्त्वकी निर्देश, स्वामित्व आदि करके व्याख्या की जाती है, इसी प्रकार पुलाकादि महर्षियोंकी व्याख्या संयम, श्रुत आदिके द्वारा ठीक होती है। उनके शरीरकी ऊंचाई, शरीरका रंग, गृहस्थ अवस्थाका धन, निवासस्थान, विषयरति, आयुः, आदि करके पतिवरोंका व्याख्यान नहीं हो पाता है। अब स्वयं ग्रंथकार प्रत्येकमें उन आठों अनुयोगोंको स्पष्ट कर कण्ठोक्त दिखलाते हैं ।
पुलाको वकुशश्चैव कुशीलाः प्रतिसेवना, छेदोपस्थापनासामायिकयोरुभयोः स्थिताः ॥ १ ॥