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तत्त्वार्थश्लोक वार्तिकालंकारे
यहां कोई पंडित आक्षेप कर रहा है कि जिस प्रकार पाक्षिक, नैष्ठिक, साधक, - नामक श्रावकके या दार्शनिक, प्रतिक आदि ग्यारह प्रतिमावाले श्रावकों का निर्ग्रन्थपना नहीं है । क्योंकि इनका चारित्र भिन्न भिन्न है । कोई सचित्त त्यागी है । कोई संपूर्ण 'स्त्रियोंका त्यागीं हैं। तीसरा आरम्भ त्यागी है, यों देश चारित्रका भेद हो जानेसे कोई
भी गृहस्थ निर्ग्रन्थ नहीं है । उसी प्रकार पुलाक आदिमें भी भिन्न भिन्न प्रकारके चारित्र 'हैं। निर्ग्रन्थका चारित्र बहुत बढिया प्रकृष्ट है । कुशील मुनिके मध्यम कोटिका चारित्र है । पुलाकका चारित्र प्रकृष्ट नहीं है । कदाचित् मूलगुणों में भी पूर्णता नहीं हो पाती है। अतः प्रकृष्ट गुणवाले और अप्रकृष्ट गुणवाले पांचोंको एक स्वरूपसे निग्रंथपनका अभाव है | यहांतक कोई अपना आक्षेप पूरा कर चुका है । अब उसके प्रति आचार्य महाराज उत्तर कहते हैं कि यह दोष तो नहीं उठाना चाहिये क्योंकि ऐसा देखा गया है । जैसे कि ब्राम्हण शद्वकी प्रवृत्ति है । कान्यकुब्ज, सनाढ्य, गौड, शुक्ल आदि अनेक जातियोंके ब्राम्हण हैं | न्यारे न्यारे ब्राम्हणोंका आचार भी न्यारा न्यारा है । कोई विष्णुकी उपासना करता हैं । अन्य शाक्त है । तथा लौकिक आचारोंमें भी भेद पाया जाता है । इसी प्रकार अध्ययम, पूजन, दानग्रहण आदि क्रियाओंमें भी परस्पर विशेषतायें पाई जाती हैं । कोई वेदपाठी है, दूसरा वैयाकरण है, तीसरा अनपढ है, चौथा बालक ब्राम्हण है, कोई दक्षिणाको लेता है, कोई दक्षिणासे घृणा करता है, यों जाति आचार, अध्ययन, पद्धति आदिके भेदसे भिन्न हो रहे भी ब्राम्हणोंमें जैसे ब्राम्हणपना विरुद्ध नहीं हो पाता है । उसी प्रकार चारित्रकी अधिकता, न्यूनता होते हुये थी पुलाक- आदिमें सर्वत्र निग्रंथ शद्व प्रवर्तता है । एक बात यह भी है कि संग्रह नयसे जैसे लंगडे, लूले, अन्धे, सूझते मूर्ख, पंडित सभी मनुष्यों का सामान्य रूपसे संग्रह हो जाता है । तथा व्यवहार नयसे अनेक जातिके वैश्यों में वैश्यपनेका व्यवहार है । उसी प्रकार संग्रह और व्यवहारनयकी अपेक्षासे न्यून गुणवाले या अधिक गुणवाले सभी मुनियोंको निर्ग्रन्थ कह दिया जाता है। हां, निश्चयनयसेही संपूर्ण गुणवाले केवल निग्रंथ और स्नातक मुनिवरोंमे उस निर्ग्रथपनका व्यवहार करना सिद्ध होता है । इसमें एक रहस्य यह भी है कि सम्यग्दर्शनसे सहित और भूषण, वस्त्र, शास्त्र आदिसे रहित निर्ग्रत्थ दिगंबररूप ये दोनों स्वरूप सामान्य रूपसे सभी पुला आदिमें पाये जाते हैं । अतः संपूर्ण दिगंबर मुनिवरोंका निर्ग्रथपना विरोधरहित सिद्ध हो जाता है ।