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इस वार्त्तिकमें पडे हुये च
" जनी नृष क्नसुरञ्जोमन्ताश्च मित्संज्ञा हो जानेकी उपलब्धि हो रही है । अतः " मितां न्हस्वः जानेसे क्षपक शद्व समीचीन ही है, यह सूत्रोक्त अर्थ ठीक समझ लिया जाय ।
नवमोध्यायः
"
-:
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३३३)
शद करके
अनुसार हस्व हो
अथ तपोभाजां संयतानां परस्परं गुणविशेषाद्द्भेदेपि नैगमनया मैग्रंथ्यसाम्य - मादर्शयन्नाह ;
असंख्यातगुणी निर्जराका प्ररूपण समझ चुकनेपर अब यहाँ कोई तर्क उठा रहा है कि सम्यग्दर्शनके होते हुये भी क्रमसे न्यारी न्यारी असंख्यातगुणी निर्जरा होनेके कारण जब तपोधारी इन संयमी मुनियोंकी परस्पर में समानता नहीं है । तब तो ग्यारह प्रतिमाओं में विभक्त हो रहे श्रावक जैसे निर्ग्रन्थ नहीं हैं । उसी प्रकार ये विरत, अनंतवियोजक आदि तपस्वी भी निर्ग्रथ नहीं हो सकेंगे। हां, बारहवें या तेरहवें गुणस्थानarmist भलेही निर्ग्रन्थ कह दिया जाय । क्योंकि इनके किसी भी सत्ता में अन्तरंग, बहिरंग परिग्रह नहीं है । इसपर आचार्य कह रहे हैं कि वक्ष्यमाण संयमी तपस्वियों के परस्परमें गुणों की विशेषता हो जानेसे भेद होते हुये भी नैगमनयकी अपेक्षा निर्ग्रथपनेकी समानता है । इसी रहस्यको स्पष्ट कर दिखला रहे सूत्रकार महाराज अग्रिम सूत्रको कह रहे हैं । भावार्थ - भात बनानेकी तैयारीमे लग रहा या चावल धो रहा, आंचपर चावल चढा रहा ये सब नैगमनयकी अपेक्षा भान बनानेमें समान हैं । अथवा प्रवेशिका, विशारद, शास्त्रीय, कक्षा के सभी छात्र विद्यार्थीपनेसे समान हैं। सबको उच्चकोटि के विद्वान् बन जानेका संकल्प लग रहा है । उसी प्रकार ये विरत आदिक और पुलाक आदिक सभी निर्ग्रन्थ हैं | अंतरंग, बहिरंग परिग्रहों के परित्यागका सबके संकल्प लग रहा है । नैगमनयके अनेक भेद हैं । भूत, भविष्य, वर्तमान, कालीन विषयोंको ग्रहण करती हुई नैगमनय संकल्पित, असंकल्पित, अनेक ज्ञेयोंपर व्यापक अधिकार जमाये रखती है ।
पुलाकबकु कुशीलनिर्ग्रन्थस्नातका निर्ग्रन्थाः ॥ ४६ ॥
पुलाक, वकुश, कुशील, निर्ग्रन्थ और स्नातक ये पांच निर्ग्रन्थ मुनि कहे जाते हैं । सम्यग्दर्शन इन सबके विद्यमान है । तथा भूषण, वस्त्र, आयुध, आदिसे रहित हो रहा परिग्रहवर्जितपना इन सबमें पाया जाता है ।