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अष्टमोऽध्यायः
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नहीं की जाती हैं, यों विनयप्रकाश करना वैनयिक मिथ्यादर्शन है। हित, अहित की परीक्षा नहीं करना आज्ञानिक मिथ्यादर्शन हैं ।
अविरतिकषापयोगा
द्वादशपंचविंशतित्रयोदशभेदाः प्रमादोनेकविधः ।
समुदायावयवयोर्बंधहेतुत्वं वाक्यपरिसमाप्तेर्वैचित्र्यात् ।
अविरति के भेद बारह हैं कषाय पच्चीस प्रकारकी हैं योगोंके तेरह भेद हैं 1 अर्थात् पृथिवीकाय, जलकाय, तेजस्काय, वायुकाय, वनस्पतिकाय और त्रसकाय इन छह कायके जीवोंको रक्षा नहीं करनेका अभिप्राय रखना, तथा स्पर्शन, रसना, घ्राण, चक्षुः, श्रोत्र और मन इन छह इन्द्रियोंके निग्रहका प्रयत्न नहीं करना यों बारह प्रकारकी अविरति है अनन्तानुबन्धी क्रोध, मान, माया लोभ, अप्रत्याख्यानावरण क्रोध, मान, माया, लोभ प्रत्याख्यानावरण क्रोध, मान, माया, लोभ १२ संज्वलन क्रोध, मान, माया लोभ १६, हास्य रति, अरति, शोक, भय, जुगुप्सा, २२ स्त्रीवेद, पुंवेद, नपुंसक वेद २५ यों सोलह कषाय और नौ नोकषायों के भेद से कषायें पच्चीस प्रकार की हैं । सत्यमनोयोग, असत्यमनोयोग, उभयमनोयोग, अनुभयमनोयोग ४ सत्यवचन योग, असत्यवचन योग, उभय वचन योग, अनुभय वचन योग ८ औहारिक कोययोग, औदारिक मिश्रकाय योग, वैक्रियिककाय योग, वैक्रियिक मिश्रका योग, कार्मरणकाय योग, ५ यों तेरह प्रकारका योग है । आहारक काय योग और आहारक मिश्रकाय योग ये दो योग तो मुनि के छठे गुणस्थान में ही सम्भवते हैं । सम्पूर्ण योग पन्द्रह माने गये हैं । बीचमें कहे गये प्रमादके पांच समिति, तीन गुप्ति, और भावशुद्धि आदि आठ शुद्धियां उत्तम क्षमा आदि दशधर्म आदि विशुद्धयन्ग परिणतियोंमे उत्साह नहीं रखने के भेदसे अनेक प्रकार हैं । मिथ्यादर्शन आदि पांचोंके समुदायको समस्तरूपसे और पांचोंके एक, दो, तीन, चार अवयवों को व्यस्तरूपसे बंध का हेतुपना है । अर्थात पहिले गुणस्थानवर्ती जीवमे बंध के कारण पांचों विद्यमान है, यहां मिथ्यादर्शन की व्युच्छित्ति हो जाती है । अत: दुसरे तिसरे, चौथे गुरणस्थानोंमे जीवोंके अविरति, प्रमाद, कषाय, योग ये चार बंधके कारण हैं। पांचवे गुणस्थानमे स्थावरोंको अविरति से मिले हुये प्रमाद, कषाय, और योग यों श्रावक, श्राविकाओंके बंधू उपयोगो साढेतीन कारण हैं। छठे मे प्रमाद, कषाय योगों को निमित्त पाकर मुनियोंके कर्मबंध होता है, यह बंध के कारण प्रमादकी व्युच्छित्ति हो जाती है। सातवें, आठवें नौमे, दशमे गुणस्थानो मे योग और कषाय दो बंध के कारण