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नवमोध्यायः
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सूत्र मे निरूपण करना युक्तिपूर्ण है, या व्यंग को ध्यान हो जाने की शंका का समाधानकारक है, (युज समाधी ) ।
भावार्थ - अनेक पदार्थोंका अवलम्ब लेकर यहो वहां चञ्चल होकर विषय कर रही चिन्ता का अन्य सम्पूर्ण विषयों की उन्मुखता से व्यावृत्त होकर एक ही अर्थ में नियमित लगे रहना ध्यान है । अप्रामाणिक धारावाहिक ज्ञानों से यह ध्यान न्यारा है, ध्यान में एक अर्थपर साधन, अधिकरण, स्वामित्व आदि की वास्तविक कल्पना अनुसार अंश, उपांशों को ग्रहण कर रहे अनेक ज्ञान गिरते है । आत्माके सुख, दु:ख, क्रोध, वेद, ध्यान लेश्या, दान, पूजन, सम्यक्त्व, खाना, पोना, व्यभिचार, ब्रह्मचर्य, दौड़ना, पठन, पाठन, आदि परिणाम किसी न किसी गुरण की ही पर्याय होसकते हैं, अन्यथा ये स्वभाव या विभाव कभी आत्मा के नहीं कहे जासकते हैं। क्रोध करना चारित्र गुरण की विभाव परिणति है । लौकिक सुख, दुःख तो अनुजीवी सुखगुरण के विभाव परिणाम है । अध्यापक की पठनपरिणति तो गुरुके ज्ञानावरण क्षयोपशम, वीर्यान्तरायक्षयोपशम, अंगोपांगनामकर्म, स्वर कर्मोदय, वाग्लब्धि, पुरुषार्थ, प्रतिभा, आदि कारणों से उपजा कतिपय गुणों का संकर परिणमन है, लेश्या भी चारित्रगुण और पर्यायशक्ति होरहे योग कासकर परिणाम है | यहाँतक कि हेंगना, सतना, रोना, चिल्लाना आदि परिणाम भी जीवों और पुद्गल के सामुदायिक गुरणों के विवर्त हैं। ध्यान भी आत्मा की एक पर्याय है, जोकि चारित्र गुण के साथ सहयोग रख रहे चेतना गुरण की विभाव परिणति है । विद्ध अवस्था मे ध्यान नहीं है, प्रत्युत तेरहवें, चौदहवें गुरणस्थानों में भी अनुप - चरित ध्यान नहीं है, अतः देशघाति प्रकृतियों के उदय अनुसार ज्ञानाबरण के क्षयोपशम से उपजे ध्यान को विभाव परिणाम कह देने में संकोच नहीं किया जाता है । सर्वार्थसिद्धि में " ज्ञानमेवापरिस्पन्दमानमपरिस्पन्दाग्निशिखावदवभासमानं ध्यानमिति, " यह लिखा है कि अग्नि की अकम्पशिखा के समान परिस्पन्द नहीं कर प्रकाश रहा ज्ञान ही ध्यान है, आर्त्तध्यान और रौद्रध्यान तो बहुभाग कुश्रुत ज्ञान मा कुनयस्वरूप हैं । रौद्रध्यान प्रथम से लेकर चौथे, पांचवे गुणस्थानों मे पाया जाता है, तथा छठे गुणस्थानतक आर्त्तध्यान सम्भवता है । अतः ये श्रुतज्ञान या नयरूप भी भले ही हो जाँय, हाँ, धर्म्यध्यान और शुक्लध्यान तो श्रुतज्ञान या श्रुतज्ञान का एक देश हो रहे नयस्वरूप हैं । पृथक्त्ववीचार और एकत्ववितर्क अविचार तो बहुत बढ़िया नय
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