________________
२४६)
तत्त्वार्थश्लोकवातिकालंकारे
+ 0
000
नहीं है खरविषाणवत् अवस्तु है। किन्तु फिर द्रव्य और पर्यायान्तरों की अपेक्षा रख चुकी पर्याय को अवस्नपना नहीं है क्योंकि अपने सम्पर्ण तादात्म्यापन्नो की अपेक्षा रख रहो उस पर्याय कोलीय का विषयपना होने के कारण वस्तु का एकदेशपना होते हुये भी अवस्तुपन का निराकरण कर दिया गया है " प्रमाणनयैरधिगमः" इस सूत्र के व्याख्यान में पांचवी वातिम द्वारा यों नियम किया गया है कि यह नय का विषय हो रहा अर्थांश न तो पूरा विस्तु है और न खरविषाणवत् अवस्तुभूत है जिस कारण से कि वह अर्थांश विचारा: अखंड, वस्तु का एक अंश कहा जाता है। जिस हो प्रकार कि समुद्र का अंश ( लाल सागर या अरब का समुद्र आदि टुकडे ) न तो पूरा समुद्र ही है और न घट, पट के समान समुद्र ही है किन्तु समुद्र का एक अंश हैं इसी प्रकार ध्यान का विषयभूत पदार्थ भी वस्तु का एक देश है कल्पित नहीं। वस्तु का अंश हो रहा ध्येय पदार्थ कोई कोरी कल्पनाओं से आरोपा जा चुका ही नहीं है यदि अंगो को कल्पित माना जायगा तो अंगी भी सर्वथा कल्पित हो जायगा अतः वस्तु को भो तिस प्रकार कल्पित हो जाने का प्रसंग आ जावेगा। वस्तु अंशों का समुदाय हो तो वस्तु है ।
स्वरूपालम्बनमेव ध्यानमित्यन्ये; तेपि न युक्तवचसः, सर्वथा तत्स्वरूपस्य ध्यानध्येयरूपद्वय विरोधात् । कथंचिदनेकस्वरूपस्य तदविरोधिध्यानरूपादर्थान्तरभूते ध्येयरूपे ध्यानं प्रवर्तते इति स्वतो व्यतिरिक्तमेव द्रव्यपरमाणुं भावपरमाणुं वा समालम्बते। न च द्रव्यपरमाणुर्भावपरमाणुवार्थपर्ययो न भवति पुद्गलादिद्रव्यपर्यायत्वात् तस्येति चिन्तितप्रायं ।
अपने आप अपने स्वरूप को ज्ञान में आलंबन विषय बनाये रखना ही ध्यान है, इस प्रकार कोई अन्य विद्वान् कह रहे हैं। ग्रन्थकार कहते हैं कि वे विद्वान भी युक्तिपूर्ण वचनों को कहनेवाले नहीं है। क्योंकि सर्वथा उसी स्वरूप में निमग्न बने रहने को ध्यान और ध्येय दो रूप हो जाने का विरोध हैं जिस का ध्यान किया जाता है वह ध्येय पदार्थ है अतः ध्यान, ध्याता, ध्येय, यों कथंचित् अनेक स्वरूप हो रहे पदार्थ के उन ध्यान, ध्येय, स्वरूपों का कोई विरोध नहीं हैं अनेक धर्मों को धार रहे ध्याता आत्मा के ध्यान स्वरूप से भिन्न अर्थ हो रहे ध्येय रूप में ध्यान प्रवर्त जाता है इस कारण वह ध्यान अपने से भिन्न हो रहे ही द्रव्यपरमाणु अथवा भावपरमाणु का भले प्रकार अवलंब करता है यों ध्यान भिन्न है और ध्यान का कर्म न्यारा है रूपादि मान पुद्गलपर्याय द्रव्यपरमाणु है जो कि " अत्तादि अत्तमज्झं अत्तत्तं ऐव