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नवमोध्यायः
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"भावप्रमेयापेक्षायाँ प्रमाणाभासनिन्हवः ।
वहिः प्रमेयापेक्षायां प्रमाणं तन्निभं च ते " ( श्री समन्तभद्राचार्यः ) । न च स्वसंविवितत्वं कस्यचिन्मूर्तस्य दृष्टमिष्टं चातिप्रसंगादित्य मूर्तत्व मेच चित्तवृत्तीनामवस्थितं ततो नासिद्धो हेतुः । नाप्यनैकान्तिको विरुद्धो वा विपक्षवृत्त्य - भावाद्यतश्चित्तवृत्तीनां प्रतिबिंबभूत्त्वाभावो न सिद्धयेत् ।
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किसी भी घट, पट आदि रूपी मूर्त पदार्थ का स्वसंवेदन प्रत्यक्ष द्वारा स्वयं को ज्ञात कर लेना देखा नहीं गया है और अनुमान या आगम द्वारा भी " मूत का स्वसंविदिति हो जाना यह सिद्ध अभीष्ट नहीं किया है। क्योंकि ऐसा मानने से अतिप्रसंग हो जावेगा । आत्मा या ज्ञान के समान अन्यगृह वस्त्रादि पदार्थ भी अपना स्वसंवेदन स्वयं करने लगेंगे, तब तो जड और चेतन पदार्थों का कोई पृथग्भाव नही
सकेगा । या चित्तवृत्तियों का अमूर्तपना ही व्यवस्थित हो जाता है तिसकारण चित्त या ज्ञान की वृत्तियों में प्रतिबिम्ब धारने के अभाव को साधनेपर दिया गया अमूर्तपना हेतु असिद्ध हेत्वाभास नहीं है । क्योंकि पक्ष में भले प्रकार वर्त रहा है । तथा यह अमूर्तस्व हेतु अनैकान्तिक यानी व्यभिचारी अथवा विरुद्ध हेत्वाभास भी नहीं है । क्योंकि निश्चित साध्याभाववाले दर्पण, रङग ( रांग ) लिप्त पीतल के वासन आदि विपक्ष पदार्थों में नहीं वर्तता है जिस से कि चित्तवृत्तियों के प्रतिविम्ब को धारने का अभाव सिद्ध न हो सके, अर्थात् असिद्ध, विरुद्ध या व्यभिचारी हेत्वाभास अमूर्तत्व हेतु होता तो दूषित हेतु अपने प्रकरण प्राप्त साध्य को सिद्ध नहीं कर पाता । किन्तु यह अमूर्तत्व हेतु निर्दोष है अतः प्रतिवादियोंके सन्मुख नियत साध्यको सिद्ध कर ही देता है । विषय प्रतिनियतमान्यथानुपपत्त्या प्रतिबिम्बभृतो ज्ञानवृत्तय इति चेन्न, निराकारत्वेपि विषयप्रतिनियमसिद्धेः पुंसो दर्शनस्य भोगनियमवत् ।
अब बौद्धों का सहारा लेते हुये सांख्य मतानुयायी कह रहे हैं कि घटज्ञान का विषय घट ही है, पटज्ञान पट को ही जानता है, ऐसा विषयों का प्रतिनियम बन जाना अन्यथा यानी ज्ञानवृत्तियों के प्रतिविम्ब ( आकार ) धारे विना पुक्तिपूर्ण नहीं सिद्ध हो पाता है, इससे अनुमित हो जाता है कि ज्ञानवृत्तियाँ चाहे मतं हों प्रतिबिम्बों को अवश्य धारती हैं । घट को ही घटज्ञान विषय करता है इसका नियामक यही है कि घटज्ञानमे घट का आकार पडा हुआ है, यदि अन्तरंग तत्त्वज्ञान का ओर बहिरंग